३१२
समाधानः- जरूरत अन्दर-से लगनी चाहिये। जरूरत इसीकी है, दूसरी कुछ जरूरत नहीं है। ये सब बाहरकी जरूरत वह वास्तविक जरूरत नहीं है। वह सब साररूप नहीं है। जरूरत स्वरूप वस्तु जो आदरने योग्य है और जो ग्रहण करने योग्य है, वह यही है। जो कल्याणस्वरूप और आत्माको आनन्दस्वरूप एवं सुखस्वरूप है वह यही है। उसे ज्ञानमें ज्ञायकमें सब भरा है, उतना विश्वास और उतनी महिमा आनी चाहिये। दिखता है ज्ञान, वह ज्ञान रुखा नहीं है, ज्ञान पूरा भरचक भरा हुआ, महिमा-से भरपूर है। उतनी उसे अन्दर-से महिमा आनी चाहिये।
मुमुक्षुः- अपनी जरूरत लगे और परकी भी जरूरत लगे तो वह वास्तवमें जरूरत नहीं लगी है।
समाधानः- अपनी जरूरत लगनी चाहिये। मुझे इसीकी जरूरत है। मेरे आत्म स्वभावकी ही जरूरत है।
मुमुक्षुः- पहले-से चली आ रही अन्य पदार्थकी जरूरत भासी है, उसके सामने अपना जो ज्ञानतत्त्व है, उसकी एकमात्र जरूरत उसे है और दूसरी कोई जरूरत नहीं है, ऐसा तुलनात्मकबुद्धिमें उसे..
समाधानः- ऐसा निर्णय होना चाहिये। कोई जरूरत नहीं है। ये सब बाहरके ज्ञेय पदार्थ हैं, वह कोई महिमारूप नहीं है, वह जरूरतवाले नहीं है। जरूरत एक आत्माकी, आत्म स्वभावकी ही है। और वह स्वभाव महिमावंत है। उतना उसे अंतरमें लगना चाहिये। उतनी उसे अनुपमता लगनी चाहिये। ये सब ज्ञेयोंका ठाठ दिखे, वह ज्ञेय उसे महिमारूप नहीं लगते। उसे महिमा एक आत्माकी ही लगती है। एक आत्मामें ही सब सर्वस्व है, कहीं ओर सर्वस्व नहीं है।
मुमुक्षुः- ऐसा विश्वास भी आता है कि मेरी वस्तुके आधार-से मुझे संतोष, शान्ति, विश्राम वेदनमें आयेगा वह मुझे नित्य अनुभवमें आयेगा। और वहाँ-से मुझे कभी वापस नहीं मुडना पडेगा। ऐसी उसे..
समाधानः- प्रतीत होनी चाहिये। वही सत्यार्थ कल्याणरूहप है, वही अनुभव करने योग्य है, वही तृप्ति, उसीमें उसे तृप्ति होगी, उसीमें उसे आनन्द होगा। उसमें प्रीतिवंत बन, उसमें संतुष्ट हो, उसमें तृप्त हो।
इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे। इससे ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।।२०६।। उसमें तुझे तृप्ति होगी, उसमें-से तुझे बाहर जानेका मन नहीं होगा। ऐसा तृप्तस्वरूप, संतोषस्वरूप आत्मा है, उसे ग्रहण कर।
मुमुक्षुः- अन्दर सब भरा है और खोजता है बाहर।