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विशेष, सब परपदाथा-से भिन्न, छः द्रव्य-से भिन्न मैं एक चैतन्यतत्त्व ज्ञान-दर्शन-से पूर्ण हूँ। ऐसे आत्मतत्त्वको अंतरमें ग्रहण करे। मैं सर्वसे भिन्न ऐसा प्रतापवंत हूँ। मेरी प्रताप संपदा सबसे भिन्न है। ऐसे चैतन्यतत्त्वको स्वानुभूतिमें ग्रहण करे।
पहले उसे द्रव्यदृष्टिमें ग्रहण करे, फिर उसका भेदज्ञानका बारंबार प्रयत्न करे। बारंबार, मैं यह चैतन्य ही हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ। और ज्ञानमें गुणोंके भेद, पर्यायके भेद ज्ञानमें ग्रहण करे। दृष्टि एक द्रव्य पर ही रखे। बाकी सब ज्ञानमें ग्रहण करके पुरुषार्थ करे। मैं द्रव्यदृष्टि-से पूर्ण हूँ, परन्तु पर्यायमें जो अधूरापन है उसकी साधना करे। उसकी साधना करके ज्ञाताधाराकी बारंबार उग्रता करे। भेदज्ञान करके उसकी उग्रता करे तो वह चैतन्यतत्त्व प्रगट हुए बिना नहीं रहता। क्योंकि स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है कि प्रगट न हो। स्वयं ही है। परन्तु स्वयं ऐसी ज्ञाताधाराकी उग्रता करे तो प्रगट हो।
आचार्यदेव कहते हैं कि जितना ज्ञान है उतना ही तू है। वही सत्यार्थ कल्याणरूप है। वही परमार्थ है और वही अनुभव करनेयोग्य है। उसीमें तुझे तृप्ति होगी और संतोष होगा। सब उसीमें भरा है। इसलिये उस ज्ञानमें अनन्त-अनन्त भरा है। अनन्त शक्तिओंका भरा हुआ अनन्त महिमावंत आत्माको ग्रहण करे तो वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता।
बारंबार उसके विकल्पके नयपक्षेमें अटके कि मैं शुद्ध हूँ या अशुद्ध हूँ, वह सब विकल्पात्मक (नयपक्ष है)। पहले विचारसे निर्णय करे कि ज्ञानस्वभाव मैं हूँ। किस अपेक्षा-से शुद्धता, किस अपेक्षा-से अशुद्धता? सब नक्की करके फिर उसका जो उपयोग बाहर जाता है, उस उपयोगको अपनी ओर मोडे। और निर्विकल्प तत्त्व है, उसे बारंबार उसकी साधना करके ज्ञाताधाराकी उग्रता करे। विकल्प-से उसे थकान लगे और चैतन्यतत्त्वमें सर्वस्व लगे तो विकल्प छूटकर निर्विकल्प तत्त्व प्रगट हुए बिना नहीं रहता।
वह सहज तत्त्व है। सहज तत्त्व पारिणामिकभावरूप परिणमता हुआ अपने आनन्द स्वभावरूप, ज्ञानस्वभावरूप अनन्त स्वभावरूप परिणमता हुआ वह तत्त्व उसे प्रगट होता है। शक्तिमें तो अनन्तता तो भरी है, परन्तु उसे प्रगट परिणमता हुआ प्रगट होता है। विकल्प तरफ-से उपयोग छूटकर, उसका भेदज्ञान करके, अपना अस्तित्व यदि वह ग्रहण करे तो वह प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं। ऐसी स्वभावकी महिमा गुरुदेवने बतायी है। और वह करने जैसा है। वह न हो तबतक उसकी भावना, बारंबार प्रयास करना। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रका आश्रय रखे। अंतरमें शुद्धात्माका आश्रय करे।
शुद्धात्माका आश्रय प्रगट करनेके लिये देव-गुुरु-शास्त्र क्या कहते हैं, उसके आश्रय- से चैतन्यतत्त्वका आश्रय ग्रहण करे। उपादान अपना तैयार करे तो निमित्त निमित्तरूप हुए बिना नहीं रहता। ऐसा गुरुदेवने बारंबार बताया है। और करने जैसा वही है।
जो ज्ञानस्वभाव दिख रहा है, कि जो क्षयोपशमके भेदमें भी भले अखण्डको ग्रहण