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वह प्रतीति, उसकी प्रतीति ऐसी होती है कि प्रत्यक्ष जैसी। भले प्रत्यक्ष प्रगट नहीं हुआ है, परन्तु वह प्रत्यक्ष जैसी प्रतीति, ऐसा दृढ निर्णय करके चैतन्यतत्त्वका आश्रयसे उसके बलसे आगे जाता है कि यही है, अन्य कुछ नहीं है। यही मार्ग है और इसी मार्ग पर जाना है। ऐसे ज्ञानस्वभावको, ज्ञायकतत्त्वको ग्रहण करके उसकी ओर मति- श्रुतका उपयोग मोडता है और बारंबार उसकी दृढता करता है। तो उसकी प्रगट प्रसिद्धि हुए बिना नहीं रहती।
समाधानः- ... स्वतंत्र है। देव-गुरु-शास्त्र उसमें निमित्त होते हैं। परन्तु अपना पदार्थ .... निमित्त तो प्रबल होता है, गुरुका और देवका, परन्तु अन्दर-से... स्वयं अपने अपराधसे अनादि काल-से परिभ्रमण किया, विभाव परिणतिमें रुका, उसके कारण जन्म-मरण हुए। वह स्वयं अपने-से ही अटका है। उसमें कर्म तो मात्र निमित्त है। कर्म कोई जबरजस्ती जबरन करवाता नहीं, स्वयं स्वतंत्र है। वैसे पुरुषार्थ करनेमें भी स्वयं स्वतंत्र है। स्वयं अपने पुरुषार्थ-से पलटे, उसे गुरुन जो बताया है, उसे ग्रहण करके यदि स्वयं पलटे तो हो सके ऐसा है।
शास्त्रमें आता है न कि पानी मलिन हो, उसे कतकफल, कोई औषधि-से निर्मल करनेमें आता है, वह अपने पुरुषार्थ-से (करता है)। वैसे आत्मा भी स्वयं पुरुषार्थ करके अंतरमें, औषधि अर्थात स्वयं अपने ज्ञान-से, ज्ञानरूप औषधिको अपने पुरुषार्थ- से जो निर्मल, आत्मा स्वभाव-से तो निर्मल ही है, परन्तु ज्ञानसे उसकी बराबर पहिचान करके ये ज्ञान भिन्न है और विभाव भिन्न है, उसे अपने पुरुषार्थ-से भिन्न करे तो भिन्न हो सके ऐसा है। स्वभाव-से तो निर्मल है, परन्तु प्रगट पर्यायमें निर्मल अपने पुरुषार्थ-से होता है।
वह स्वयं ही उससे भिन्न पडता है, भेदज्ञान करता है, स्वानुभूति करता है, वह सब वही करता है। अपनेको जरूरत लगे तो पलटता है। मुझे आत्मा ही चाहिये, आत्माकी स्वानुभूति और आत्माका स्वभाव जो ज्ञान, आनन्दादि अनन्त गुणों-से भरपूर है, वही मुझे चाहिये। ऐसी यदि अपनेको जरूरत लगे तो वह स्वयं ही पलट जाता है। तो वह बाहरमें अटक नहीं सकता। उसको खुदको जरूरत लगे तो स्वयं ही पलटता है और वह अपने पुरुषार्थ-से ही हो सके ऐसा है। कोई उसे जबरन करवाता नहीं। स्वयं करे तो हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- वह कैसा पुरुषार्थ चाहिये? ऐसी जागृति उसे कैसे आये?
समाधानः- अन्दरमें ऐसी जागृति हो कि मैं यह चैतन्य हूँ और यह नहीं हूँ। अपना चैतन्यतत्त्व है उसे ग्रहण करे, ये शरीरादि पर ऊपर अपनी बुद्धि है, बाहरमें मैं-मैं हो रहा है, उसमें-से अहंपना छोडकर चैतन्य सो मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ, ऐसे