Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

३२० स्वयं चैतन्य तरफ ऐसी दृष्टि करे, अपना सहज अस्तित्व ग्रहण करे, ऐसा पुरुषार्थ करे तो हो। उसे ग्रहण करके भी उसे बारंबार, क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी धारा पुरुषार्थ-से प्रगट करे तो हो। प्रतीत-से निर्णय करे कि यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ। फिर उसका बारंबार भेदज्ञान करके उग्रता करके भिन्न पडे तो अपने-से हो ऐसा है।

गुरुदेवने तो बहुत बताया है। किसी भी जगह अटके बिना, पूर्णरूप-से, कहीं भी रुचि न रहे, एक आत्मामें ही रुचि सर्व प्रकार-से रहे तो होता है। हर जगह-से रुचि छूट जाय। कहीं रस न रहे, हर जगह-से रुचि छूट जाय। एक चैतन्य तरफ ही रुचि, चैतन्य ही ग्रहण हो, चैतन्य ही आदरणीय रखे, कहीं रुके नहीं, कहीं उसे रुचि लगे नहीं, सर्वांग सर्व प्रकार-से रुचि छूट जाय और चैतन्यकी ही रुचि लगे तो हो। फिर विभावमें खडा हो, परन्तु उसे सब रुचि छूट जाती है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!