३२० स्वयं चैतन्य तरफ ऐसी दृष्टि करे, अपना सहज अस्तित्व ग्रहण करे, ऐसा पुरुषार्थ करे तो हो। उसे ग्रहण करके भी उसे बारंबार, क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी धारा पुरुषार्थ-से प्रगट करे तो हो। प्रतीत-से निर्णय करे कि यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ। फिर उसका बारंबार भेदज्ञान करके उग्रता करके भिन्न पडे तो अपने-से हो ऐसा है।
गुरुदेवने तो बहुत बताया है। किसी भी जगह अटके बिना, पूर्णरूप-से, कहीं भी रुचि न रहे, एक आत्मामें ही रुचि सर्व प्रकार-से रहे तो होता है। हर जगह-से रुचि छूट जाय। कहीं रस न रहे, हर जगह-से रुचि छूट जाय। एक चैतन्य तरफ ही रुचि, चैतन्य ही ग्रहण हो, चैतन्य ही आदरणीय रखे, कहीं रुके नहीं, कहीं उसे रुचि लगे नहीं, सर्वांग सर्व प्रकार-से रुचि छूट जाय और चैतन्यकी ही रुचि लगे तो हो। फिर विभावमें खडा हो, परन्तु उसे सब रुचि छूट जाती है।