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मुमुक्षुः- आपने कहा है न कि कहीं अच्छा न लगे तो आत्मामें रुचि लगा।
समाधानः- जिसको कहीं अच्छा नही लगता है, वह आत्मामें रुचि करता है। जिसे अच्छा लगता है, बाहर में जिसको रुचता है उसे आत्मामें अच्छा नहीं लगता। जिसकी बाहर- से रुचि उठ जाय, बाहरसे रुचि उठ जाय तो आत्मामें रुचि लगे और जिसको आत्मामें रुचि लगे उसको ही बाहरसे रुचि उठ जाती है। और जिसको कहीं अच्छा न लगे उसको आत्मामें रुचि लगे बिना रहती ही नहीं। आत्मामें रुचि लगे उसे बाहर कहीं अच्छा भी नहीं लगता।
मुमुक्षुः- ऐसा तो लगता है कि कहीं अच्छा नहीं लगता।
समाधानः- हाँ, अच्छा नहीं लगता है, लेकिन उसका उपाय नहीं ढूँढता है। रुचता नहीं है वह यथार्थ नहीं है। वास्तविकरूप-से रुचे नहि तो उसका रास्ता निकाले बिना वह रहता नहीं। उसको स्थूलरूप-से अच्छा नहीं लगता है, वैराग्य करता है, सब करता है कि स्थूल रूप-से उसे कहीं अच्छा नहीं लगता। यह ठीक नहीं है ऐसा स्थूल रूप-से लगता है। अंदरसे यदि ठीक न लगे तो ठीक वस्तु क्या है उसको ग्रहण किये बिना रहता नहीं।
मुमुक्षुः- ...तो उसके पुरुषार्थसे उसकी प्राप्ति होती है?
समाधानः- तो पुरुषार्थ से स्वकी प्राप्ति होती है। पुरुषार्थ करे तो।
मुमुक्षुः- फिर तो गुरुदेव के साथ आप गणधर होनेवाले हैं, माताजी! तो हम भी गणधरके साथ उनके पीछे तो होगें या नहीं होगें ?
समाधानः- अपनी खुदकी तैयारी हो तो रहता है। गुरुदेवने जिस मार्गको ग्रहण किया उस मार्गको स्वयं ग्रहण करे ऐसी भावनावाले हो तो साथ ही रहते हैं। वह स्वयं अंदर तैयारी करे तो।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने जो मार्ग बताया है, वह मार्ग आप बता रहे हो, गुरुदेव अनुसार। और वह मार्ग परीक्षक बुद्धिसे ग्रहण किया है। वह छूट न जाये...
समाधानः- (पुरुषार्थ) अनुसार होता है। गुरुदेव भी कहते थे कि धीरे-धीरे चले उसमें कोई बाधा नहीं है, परन्तु मार्ग तू बराबर ग्रहण करना कि इस रास्ते-से भावनगर जा सकते हैं। तो वह रास्ता बराबर है कि इस मार्गसे आत्मा तरफ जा सकते हैं। उसके बदले दूसरा ऊल्टा रास्ता पकडे तो नहीं जा सके। यह ज्ञान स्वभाव आत्मा है उसको ग्रहण करनसे, उसी मार्गसे स्वानुभूति और भेदज्ञान होता है। वह रास्ता बराबर पकडना। उसमें धीरे-धीरे चलना हो तो उसमें कोई दिक्कत