३२२ नहीं है, लेकिन उसका ध्येय बराबर रखना। हो सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना और न हो सके तो श्रद्धा तो अवश्य करना। आचार्यदेवने कहा है। हो सके तो तू दर्शन-ज्ञान-चारित्ररुप परिणमन करके केवलज्ञानकी प्राप्ति करना। ध्यानमय प्रतिक्रमण। ध्यानमें ऐसी उग्रता करना कि स्वरुपमें लीन होकर बाहर न आये ऐसी उग्रता करना। लेकिन उस प्रकारका ध्यानमय प्रतिक्रमण न हो सके तो श्रद्धा तो बराबर करना कि मार्ग तो यही है। न हो सके तो थक कर दूसरे, तीसरे कहीं थोडा करके मैंने बहुत किया, थोडे शुभभाव करके मैंने बहुत किया ऐसा संतोष मत मान लेना। संतुष्ट मत हो जाना। (संतुष्य हो गया तो) तुझे आगे जानेका अवकाश नहीं रहेगा। लेकिन तूं ऐसी भावना रखना कि मार्ग तो यही है। संतोष तो अंदर आत्मामें-से संतोष आये और तृप्ति आये वही यथार्थ है। वह न हो तबतक उसकी श्रद्धा बराबर रखना कि मार्ग तो यही है। फिर धीरे-धीरे चलेना हो या जल्दी चले उसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन मार्ग तो यथार्थ ग्रहण करना। आचार्यदेव ऐसा कहते हैं, गुरुदेव ऐसा कहते थे।
मुमुक्षुः- तृप्ति हुई, यह कैसे मालूम पडे?
समाधानः- वह अपने आपको जान सकता है, अपनी रुचि और जिज्ञासासे। गुरुदेवने जो मार्ग बताया है, उस मार्गको अंदर गहराई-से विचार करके मार्ग यही है, ऐसा स्वयं निर्णय करके वह जान सकता है कि करना यही है। इस ज्ञानस्वभावको ही ग्रहण करना है। दूसरा कुछ ग्रहण नहीं करना है। वह स्वयं अपनी श्रद्धा और प्रतीतसे अपनेआपको पहचान सकता है, अपनी परिणतिको।
इतना करते हैं और कुछ होता नहीं, ऐसे थककर तू उससे पीछे मत हटना, थकना नहीं। तेरे उत्साहको मन्द मत करना। उत्साह तो ऐसा ही रखना कि सबकुछ आत्मामें ही है, कहीं और नहीं है। मैं कर नही सकता हूँ। उत्साह तो बराबर रखना। न बन पाये तो धीरे चलना हो, देर लगे उसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन मार्ग दूसरा कोई पकड ले कि थोडी क्रिया करके धर्म माना, शुभभाव थोडा ज्यादा हुआ तो धर्म हो गया, ऐसा तू मत मान लेना।
शुद्धात्मा में हीं धर्म है। निर्विकल्प स्वरुप ही आत्मा है और शुद्धात्मामें ही सब कुछ भरा है, ऐसी श्रद्धा तो बराबर रखना। भेदज्ञान ही उसका उपाय है। आत्माके जो द्रव्य-गुण-पर्याय यथार्थ है, उस द्रव्य पर दृष्टि करना और ज्ञान सबका करना, अंदर परिणति करनी, वह श्रद्धा बराबर करना। न हो सके तो मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है ऐसी तू भावना रखना। लेकिन थककर दूसरे तरफ मुडना नहीं।
आत्मामें ही सबकुछ है। सम्यग्दर्शन अपूर्व है गुरुदेवने बताया। अनंतकालमें सबकुछ प्राप्त किया लेकिन एक सम्यग्दर्शन दुर्लभ है। जिनवर स्वामी अनंतकालमें मिले नहीं और सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ नहीं। जिनवर स्वामी अनेक बार मिले लेकिन स्वयंने पहचान नहीं करी। सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका सर्वोत्कृष्ट निमित्त जिनवर स्वामी है। निमित्त और उपादान दोनों लिया। अंदरमें सम्यग्दर्शन नहीं हुआ और बाहरमें उसका सर्वोत्कृष्ट निमित्त, उसे तूने बराबर पहचाना नहीं है। निमित्त-