१९२ स्वभाव अचिंत्य है। द्रव्यका जो बीचवाला परिणति होनेका स्वभाव है वह अचिंत्य है। या तो कोई निमित्त पर चला जाता है, कोई उपादान पर। या तो ऐसा कहे कि निमित्त नहीं है, या तो ऐसा कहते हैं, निमित्त है तो निमित्त करता है। ऐसे बीचमें जो तीसरा है, उसकी परिणति कोई अचिंत्य है। अन्दर बराबर बैठे तो उसे बराबर समझमें आये।
मुमुक्षुः- स्वयंको यदि त्रिकालीमें स्थापित करे तो भी भूल है, तो एकान्त हो जाता है।
समाधानः- तो एकान्त हो जाता है। मैं तो शुद्ध ही हूँ।
मुमुक्षुः- भूल किसकी? भूल किसीकी नहीं ऐसा लगे।
समाधानः- हाँ, भूल किसीकी नहीं है, ऐसा हो जाये। परन्तु स्फटिक स्वयं मूलमें शुद्धता रखकर स्वयं लाल-पीले फूलरूप परिणमता है। वैसे चैतन्यद्रव्यकी शुद्धता तोडकर अशुद्धता नहीं होती। शुद्धता रखकर परिणमता है।
मुमुक्षुः- स्वयंका द्रव्य ही परिणमता है।
समाधानः- वह स्वयं ही परिणमता है। उसे अपना ख्याल नहीं है, परन्तु अज्ञानदशामें भी वैसे ही परिणमता है। अपनी शुद्धता टूटती नहीं। कहते हैं न, अपना घर छोडकर उसका कोई काम नहीं होता। परिणति अशुद्ध होती है, लेकिन अपना चैतन्यद्रव्य, जो उसका स्वभाव है वह टूटता नहीं।
मुमुक्षुः- जिनेन्द्र भगवानकी एक रहस्यमय बात है।
समाधानः- हाँ, रहस्यमय बात है। इसलिये वह सब ऊपर-ऊपर होता है। उसके अंतरमें-मूलमें कुछ नहीं होता। फिर भी उसे अशुद्धताका वेदन है। या तो इस ओर चला जाता है, या उस ओर चला जाता है। ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- या तो फिर ऐसा कहे, पर्यायका कर्ता पर्याय है।
समाधानः- हाँ, तो ऐसा हो जाये। पर्यायका कर्ता पर्याय है। द्रव्य कुछ नहीं करता। द्रव्य और पर्याय दोनोंका अंश और अंशी ऐसे दो भाग करो तो ऐसा कहनेमें आये। बाकी प्रवचनसारमें आता है, द्रव्य स्वयं ही परिणमता है। पर्याय कोई अन्यकी तो है नहीं, द्रव्य स्वयं परिणमित होकर पर्याय होती है। उसका वेदन स्वयंको है। स्फटिक स्वयं परिणमता है। स्फटिककी लाल परिणति और उसकी शुद्धता, ऐसे दोनोंको अलग करो तो उसका लाल रंग और उसकी शुद्धता, स्फटिककी जो शुद्धता है वह भिन्न और लाल रंग अलग ऐसा कहनेमें आता है, परन्तु वह वस्तु भिन्न-भिन्न नहीं हो जाती। वस्तु तो एक ही है।
वैसे चैतन्यकी अशुद्धता और अन्दर शुद्धता। वैसे शुद्धता और अशुद्धता ऐसे उसके