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है। पूजा आदि कार्य नहीं होते परन्तु उन्हें भक्ति होती है। सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें उसे कोई विरूद्धता नहीं है कि वह रागकी भूमिका है और आत्मा वीतराग है, इसलिये उसे वह आये ... वीतरागदशा प्रगट होती है, तब वह छूट जाता है। परन्तु वीतरागस्वरूप आत्माका है, लेकिन उसे दृष्टिमें ग्रहण किया, आत्मा निर्विकल्प तत्त्व है, उसे दृष्टिमें ग्रहण किया लेकिन उस प्रगट नहीं हुआ है तब तक बीचमें आये बिना नहीं रहती। जो स्वयंको जानना है, वह दर्शानेवाले मिले उन पर भक्ति आये बिना नहीं रहती। उसे विरूद्धता नहीं है कि अब अन्दर आत्माका करना है, बाहरका कुछ नहीं। लेकिन वह रागकी भूमिकामें आये बिना रहता ही नहीं। नहीं आये तो स्वयं बराबर समझा नहीं है। स्वयं समझा नहीं है। अन्दर आत्माका ही करना है, बाहरका (क्या काम है)? लेकिन बाहरके विकल्प उसे आये बिना रहते ही नहीं। दूसरा बाहरका कैसे आता है? विभावकी भूमिकामें दूसरे विभावके भाव उसे अप्रशस्त आते हैं तो प्रशस्तमें पलटे बिना नहीं रहता। जिसे आत्माकी रुचि जागी, उसके भाव प्रशस्तमें पलट जाते हैं।