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मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! आगममें जगह-जगह सात तत्त्वके यथार्थ श्रद्धानको ही सम्यकत्वका लक्षण गिनकर महत्ता दी है तो उसमें इतना क्या रहस्य है, यह कृपा करके समझाईये कि जिससे हमें सम्यकत्व-रत्नकी महिमा जागृत हो।
समाधानः- सात तत्त्वकी श्रद्धामें आचार्यदेवको एक जीवपदार्थको मुख्य कहना है। लेकिन वह एक आत्मा पदार्थ समझ नहीं सकता है। इसलिये उसे व्यवहारकी बात भी साथमें (कहते हैं)। सात तत्त्वका श्रद्धानमें मुख्यरूपसे तो अन्दर आत्माकी ओर द्रव्यदृष्टि करनी, ऐसा आचार्यदेवको कहना है। भूतार्थदृष्टिको ग्रहण कर। लेकिन उसमें सात तत्त्वकी श्रद्धा बीचमें होती है। इसलिये आचार्यदेव व्यवहारसे बात करे तो भी अन्दर आत्माको ग्रहण करानेका उनका आशय होता है। एक आत्माको ग्रहण करना। भूतार्थ तत्त्व एक भूतार्थ आत्मपदार्थ है, उसे ग्रहण कर। उसके बीच ये सात तत्त्व- जीवतत्त्व, अजीवतत्त्व, आस्रव, संवर, बंध, मोक्ष आदि आते हैं। क्योंकि तुझे साधकदशा प्रगट करनी है तो उसमें बीचमें यह विभाव है, विभावमेंसे संवर हो, उसमेंसे निर्जरा हो, विशेष शुद्धि हो तो निर्जरा हो, अमुक शुद्धि हो तो संवर हो, पूर्ण शुद्धिमें मोक्ष होता है। सादकदशा और साध्य दोनों आचार्यदेव बताते हैं।
भूतार्थनयको मुख्य कर। एक मुख्य चैतन्यद्रव्यको मुख्य करके उसमें यह जो पर्याय होती है, वह दोनों उसमें आ जाते हैं। आचार्यदेव पूरा मुक्तिका मार्ग बता रहे हैं। आचार्यदेवको व्यवहारकी बात करके समझाना है, एक जीवतत्त्वको ग्रहण करना। लेकिन ... ऐसा नहीं है। व्यवहारसे जो कहते हैं यानी व्यवहार बिलकूल है ही नहीं ऐसा नहीं है। आचार्यदेवके एक-एक शब्द जो होते हैं वह तत्त्व ग्रहण करनेके लिये होता है और यथार्थ मुक्तिमार्ग ग्रहण करवाना होता है। आचार्यदेव जो कहते हैं, उसमें जो व्यवहारकी बात करते हैं वह बिलकूल जूठी है ऐसा नहीं। आचार्यदेवकी जो कथनी होती है वह सत्यता पर सत्य ही होती है। इसलिये निश्चय किस अपेक्षासे है और व्यवहार किस अपेक्षासे, वह उसे आत्मार्थ हेतु समझना रहता है। आत्मार्थीको आचार्यदेव पूरा मुक्तिका मार्ग समझाते हैं।
मुख्य जो आत्मा है उसे ग्रहण कर, जीवतत्त्वको ग्रहण कर। उसमें सब पर्यायें