Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

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समाधानः- आत्माका ज्ञान करानेको सात तत्त्वकी श्रद्धा करनेको कहा है।

मुमुक्षुः- आत्माके श्रद्धानका अर्थ आप सामर्थ्यके श्रद्धानकी बात करते हो? आत्माके सामर्थ्यकी? हेतु यह है?

समाधानः- आत्माका ज्ञान कर यानी आत्माका सामर्थ्य और आत्मा तत्त्व कैसा है, उसका ज्ञान कर। सामर्थ्य यानी अनन्त गुणोंसे भरा है, ऐसे ग्रहण कर। फिर अनन्त गुण पर दृष्टि नहीं रखनी है। आत्मा कैसा है? ज्ञायकतत्त्व। उसे ग्रहण तो एक अभेदको है। लेकिन उसका सामर्थ्य कैसा अनन्त है, उसमें साथमें सब ज्ञानसे ग्रहण करना है। आत्माका अनन्त सामर्थ्य, आत्माके गुण-पर्याय ज्ञानसे ग्रहण कर। फिर दृष्टि एक आत्मा पर स्थापित करनी है।

शास्त्र पढता रहे तो शास्त्र मात्र पढनेके लिये नहीं है। तू शास्त्र समझ, उसमें आत्माको पहचान ऐसा कहनेका आशय होता है। मन्दिर जाना मतलब भगवानके दर्शन करने है। वैसे आत्माको ग्रहण करनेका आशय होता है। "चारित्र, दर्शन, ज्ञान पण व्यवहार कथने ज्ञानीने'। व्यवहारसे चारित्र, दर्शन कथन कहे, लेकिन निश्चयसे चारित्र नहीं है, दर्शन नहीं है, ज्ञान नहीं है। अर्थात गुणभेद नहीं है। लेकिन वह स्वरूप तो है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये तीनों गुण आत्मामें है। लेकिन उस गुणभेदमें रुकना नहीं। भेदका विकल्प करनेसे राग होता है। इसलिये तू विकल्प तोडकर आत्मामें स्थिर हो।

... चारित्र पर ऐसे दृष्टि करनेसे तू उसमें रुक जायेगा। एक ज्ञायक पर दृष्टि स्थापित कर। लेकिन वह तीन भेद उसे बीचमें समझानेके लिये कहनेके लिये आये बिना रहता ही नहीं। आचार्यदेव कहते हैं कि खेद है कि बीचमें व्यवहार आये बिना रहता ही नहीं। अनादिसे जो विभावमें पडा है, उसमेंसे साधकदशा प्रगट होती है, इसलिये बीचमें व्यवहार आये बिना रहता ही नही। इसलिये जो नहीं समझते हैं उसे व्यवहारसे समझानेमें आता है। लेकिन जो आत्मार्थी होता है वह आशय ग्रहण कर लेता है कि गुरुदेवको एक आत्मा ग्रहण करानेका हेतु है, लेकिन बीचमें यह समझानेके लिये यह सब आता है। लेकिन निश्चय-व्यवहारकी संधि भी होनी चाहिये। एक आत्माको ग्रहण कर। और यह जो गुण और पर्यायका स्वरूप है, वह कुछ है ही नहीं, ऐसे छोड दे तो भी भूल होती है। सबका स्वरूप समझकर एक द्रव्य पर दृष्टि करनी है।

समाधानः- ... ज्ञायक परिणति अंतरमें प्रगट हुई, वह ज्ञायककी परिणति चालू हो गयी। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हो गयी। ज्ञायककी परिणति सदाके लिये, खाते-पीते, जागते-सोते, स्वप्नमें सबमें ज्ञायककी परिणति चालू ही है। ज्ञायककी धारा चालू हो गयी। पुरुषार्थकी धारा ज्ञायककी ओर ही चलती है। ऐसी ज्ञायकताकी उग्रताके लिये उसका प्रयत्न चालू ही है। उसकी भूमिका अनुसार।