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फिर जैसे भूमिका बढती जाये, वैसे ज्ञायककी परिणति भी विशेष-विशेष बढती जाती है। लीनता बढती जाती है। भूमिका पलटनेसे पाँचवां गुणस्थान, छठ्ठा-सातवां गुणस्थान आता है। जैसे-जैसे भूमिका बढती जाती है, वैसे-वैसे उसे परिणतिमें लीनता बढती जाती है। बाकी सम्यग्दर्शनके बाद ज्ञायककी परिणति चालू ही रहती है। ज्ञायककी परिणति प्रगट हो गयी, इसलिये वर्तमान दशामें कुछ नहीं होता, ऐसा नहीं है। ज्ञायककी परिणति, ज्ञायकका वेदन प्रतिक्षण होता है। चाहे जैसे प्रसंगमें उसे ज्ञायककी परिणति छूटती ही नहीं।
उसे निर्विकल्प दशा भी उसकी भूमिका अनुसार होती है। वह आनन्दकी दशा अलग बात है, लेकिन वर्तमान धारामें भी विकल्पके साथ एकत्वरूप आकूलता नहीं होती। अन्दर शांतिकी धारा, समाधिकी धारा, ज्ञायककी धारा, विरक्ति, विभावसे विरक्ति और स्वभावमें एकत्व एवं विभावसे विरक्त, उसे याद नहीं करना पडता, बल्कि सहज ज्ञानधारा और उदयधारा चालू ही है। चाहे जैसे प्रसंगमें क्षण-क्षणमें, कभी भूलता नहीं। चाहे जैसे प्रसंग हो, चलते-फिरते कभी भी उसे ज्ञायककी परिणति, कोई भी भावोंमें ज्ञायक परिणति छूटती नहीं। ऐसी उसकी दशा हमेशा चलती है। ऐसा सहज पुरुषार्थ उसका चालू ही होता है। ऐसी उसकी दशा होती है। ऐसी ज्ञानधारा, उसकी प्रतीतका जोर उतना और लीनता उस ओर चालू ही रहती है।
मुमुक्षुः- सहज और पुरुषार्थ, दोनों एकसाथ कैसे रहते हैं? सहज पुरुषार्थ चलता है?
समाधानः- सहज चलता है। सहज पुरुषार्थ। विकल्प करके पुरुषार्थ रखना पडे ऐसा नहीं है। भूल गया और फिर पुरुषार्थ करना पडे, ऐसा नहीं है। सहज पुरुषार्थ चलता है। अन्दर ज्ञायककी परिणतिका पुरुषार्थ सहज (चलता है)। विभावसे भिन्न हुआ सो हुआ, फिर विशेष-विशेष लीनताके लिये पुरुषार्थ, अपने स्वरूपकी ओरकी डोर चालू है वह चालू ही रहती है। ज्ञानदशाकी डोरी कभी नहीं छूटती। ऐसी पुरुषार्थकी धारा उसकी सहज चलती है। पुरुषार्थ और सहज है। पुरुषार्थ है, लेकिन सहज है।
मुमुक्षुः- माताजी! जैसे ज्ञान और चारित्र कहनेपर उसका कुछ-कुछ भाव पकडमें आता है, परन्तु दृष्टि, जिसके आधारसे भवकटि हो जाये, सब दुःख दूर हो जाये, ऐसी दृष्टिके स्वरूपकी महिमा समझानेकी विनती है।
समाधानः- ज्ञान यानी वह समझता है कि जानना वह ज्ञान। बाकी सच्चा ज्ञान तो स्वकी ओर जाये तब होता है। चारित्र यानी वह आचरणकी अपेक्षासे समझता है, बाकी सच्चा चारित्र तो स्वरूपमें जाये तब होता है। ऐसे दृष्टि-श्रद्धा। स्वरूपकी ओर दृष्टि गयी तो उसे विभावस्वभावमें भेद हो गया कि यह स्वभाव है, विभाव मुझसे