२०६ भिन्न है। उसी तरह गुणभेद पर भी वह टिकती नहीं। एक अपना अस्तित्व ग्रहण करे, ऐसी जो दृष्टि, नजर, विश्वास और श्रद्धाका जो बल है, वह एक आत्माको ही ग्रहण करके टिकी रहती है। ऐसी दृष्टि कोई अलग ही है। उसमें ही उसे स्वानुभूति आदि दृष्टिके बलसे होते हैं। उसकी दृष्टि कहीं ओर जाती ही नहीं। एक आत्माको ही ग्रहण करती है। बद्धस्पृष्ट आदि सब भाव ऊपर तिरते हैं। वह ऊपर-ऊपर रहते हैं। एक आत्मा ही उसे, मूल तल जो आत्मा है उसमें ही उसकी दृष्टि स्थिर रहती है। पूरी दिशा बदल गयी है।
... चैतन्य भगवान पर दृष्टि चिपक गई, फिर उसमें गुणभेद, पर्यायभेद पर दृष्टि टिकती नहीं। ज्ञानमें सब आता है, ज्ञानमें सब आये, लेकिन दृष्टि तो एक चैतन्यको ग्रहण करती है। दृष्टिका निर्णय और उसकी श्रद्धा, जोरदार एकको ग्रहण करती है। ज्ञानमें सब आता है। ज्ञान सबकी श्रद्धा करता है। द्रव्यको जाने, गुणको, पर्यायको, सबको जाने। लेकिन दृष्टि एक आत्मा पर है।
जिसे सम्यग्दर्शन हुआ उसके साथ सम्यग्ज्ञान होता ही है। सम्यग्ज्ञान (और सम्यग्दर्शन) दोनों साथमें ही होते हैं। इसलिये उसमें मुख्य निश्चयकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शन है। लेकिन सम्यग्ज्ञान उसके साथ ही होता है। सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञान होता ही है। एक आत्माको ग्रहण किया इसलिये उसमें गुण-पर्यायको जाने नहीं, ऐसा नहीं बनता। ज्ञान और दर्शन दोनों साथमें ही रहते हैं। मोक्षमार्गमें दोनों साथ ही रहते हैं। उसकी चारित्रकी आराधना साथमें रहती है। बाकी काम दोनों साथमें रहकर (करते हैं)। दृष्टि मुख्यरूपसे है और ज्ञान उसके साथ रहता है। दोनों साथ ही रहते हैं।
ज्ञानकी अपेक्षासे ज्ञानकी महिमा है, दृष्टिकी अपेक्षासे दृष्टिकी (महिमा है)। लेकिन दृष्टिके बिना अनादि कालसे रखडा और अपने भवका अभाव नहीं हुआ। स्वानुभूति प्रगट नहीं हुयी। दृष्टि महिमावंत है, सम्यग्दर्शन महिमावंत है। सम्यग्दर्शन होता है इसीलिये ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। नहीं तो सम्यग्दर्शन बिनाका ज्ञान, ज्ञान नहीं है। आत्माको जाने बिनाका ज्ञान वह ज्ञान नहीं है। इसलिये सम्यग्दर्शन महिमावंत है।
मुमुक्षुः- दृष्टिका परिवर्तन होना चाहिये, दृष्टि पलटनी चाहिये।
समाधानः- दृष्टि पलटनी चाहिये। लेकिन समझनेके लिये पहले व्यवहारसे ज्ञान साथमें होता है। द्रव्य किसे कहते हैं, गुण किसे कहते हैं, पर्याय किसे कहते हैं, भेद-अभेद आदि किसको कहते हैं, वह सब ज्ञानमें जाननेमें आता है। वह ज्ञानमें निर्णय करता है। पहले व्यवहारको जानना कैसे? ज्ञान उसे बीचमें साधनरूप होता है। व्यवहारसे। लेकिन दृष्टि मुख्य है।
मुमुक्षुः- ज्ञान होनेपर उसे दृष्टि बदल जाती है?