२१० अस्तित्व आया उसमें नास्तित्व आ जाता है। विभावसे विरक्ति और स्वभावकी ओरका अस्तित्व ग्रहण कर लिया है।
मुमुक्षुः- उसके लिये कोई दृष्टान्त? जिससे ज्ञानीका स्वरूप ख्यालमें आये कि यह विरक्ति किस प्रकारसे है? ज्ञानीका सहज पुरुषार्थ जो चलता है, उस सहज पुरुषार्थका कोई दृष्टान्त?
समाधानः- उसका पुरुषार्थ चालू ही है। ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति, अचिंत्य शक्ति, ज्ञान-वैराग्यकी ऐसी शक्ति है कि कहीं एकत्व नहीं होता, भिन्न ही भिन्न सदा रहता है। सदा भेदज्ञानकी भावना, अविच्छिन्नरूपसे भेदज्ञान भाता है। अर्थात अन्दरमें अविच्छिन्न धारासे स्वरूपमें स्थिर नहीं हो जाये, वहाँ भेदज्ञान यानी इस ओर भेदज्ञान लेना और अंतरमें ज्ञायकधाराकी उग्रता करता जाता है, लीनता बढाता जाता है। सम्यग्दर्शनमेंसे पाँचवा, छठ्ठा मुनिदशा पर्यंत उसकी ज्ञायकधारा (बढती जाती है), ज्ञायककी लीनता बढती जाती है। इस ओरका यह पुरुषार्थ है। ज्ञायकमें लीनता बढती जाती है। इस ओर भेदज्ञानकी धारा (चलती है), विकल्पसे भिन्न पडता जाता है। दृष्टि अपेक्षासे सब प्रकारसे भिन्न हो गया। और आचरणमें जो बाकी है, वह स्वयं ज्ञायककी ज्ञाताधाराकी उग्रता करता जाता है, लीनता बढाता जाता है और विभावसे भिन्न पडता जाता है।
मुमुक्षुः- इसलिये विभाव कटता जाता है।
समाधानः- हाँ, विभावसे भिन्न (होता जाता है)। उसका रस था वह नहीं है। प्रत्याख्या, अप्रत्याख्यान आदिका जो कषाय है, वह छूटकर ... होते जाते हैं। अन्दर लीनता बढती जाती है, इसलिये सब विभावका रस, स्थिति, रस सब टूटते जाते हैं।
मुमुक्षुः- ज्ञायकधाराकी जो शुरुआत है वह तो प्रयत्नपूर्वकके विकल्पोंसे ही होती है न?
समाधानः- शुरूआतमें विकल्प होते हैं, लेकिन जो सहज धारा हो गयी, फिर उसे विकल्प साथमें नहीं रहता। सहज हो गया, उसके बाद विकल्प साथमें नहीं है।
मुमुक्षुः- शुरूआत तो प्रयत्नपूर्वकके विकल्पसे ही होती है?
समाधानः- शुरूआत, जब सम्यग्दर्शन नहीं हुआ है, तब तो वह अभ्यास करता है उस वक्त विकल्प साथमें आते हैं कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। ऐसे विकल्प आये। लेकिन ज्ञायक हो गया, ज्ञायककी धारा चालू हो गयी, निर्विकल्प दशा हो गयी, फिर बाहर आनेके बाद उसे विकल्प करके भिन्न नहीं रहना पडता। उसकी ज्ञायककी धाराकी परिणति सहज (चलती है)। अपनी डोर अपने हाथमें ही है। विकल्प किये बिना, भिन्न ही भिन्न रहता है। विकल्प किये बिना पुरुषार्थकी गति ऐसी चालू रहती है। विकल्प किये बिना, है पुरुषार्थकी गति परन्तु चालू रहती है। विकल्प बिना पुरुषार्थकी गति