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उसकी चालू रहती है। कोई भी प्रसंगमें वह भिन्न (रहता है)। मैं तो यह हूँ, मैं यह नहीं, मैं तो यह हूँ, मैं यह नहीं हूँ। उससे विशेष भिन्न होता जाता है। लीनता करता जाये तो ज्ञायकधाराकी उग्रता करके विशेष भिन्न होता जाता है। ऐसी उसकी सहज पुरुषार्थकी डोर विकल्प बिना रहती है, ऐसी उसकी पुरुषार्थकी डोर चालू रहती है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! उपयोग बाहर हो तो भी लीनता बढती जाती है?
समाधानः- उपयोग बाहर हो तब लीनता बढती है... उपयोग बाहर तो भी वह स्वयं रागके साथ जुडता था, वह रागके साथ कम जुडता जाये तो उसमें लीनता ज्यादा है। रागके साथ कम जुडे तो। उपयोगको बाहर जाननेके साथ सम्बन्ध नहीं है, लेकिन रागके साथ सम्बन्ध है। बाहर जुडे उसमें उसे राग किस प्रकारका है। भेदज्ञानकी धारा तो उसे होती है। राग और ज्ञायक, दोनों भिन्न है वह तो भिन्न ही है। बाहर उपयोग हो तो कुछ जानता हो तो उसे रागके साथ भेदज्ञानकी धारा तो चालू ही है। लेकिन उसमें कितना जुडता है, उसके आचरण अपेक्षासे कितना जुडता है, वह उसके चारित्रगुणकी बात है। उसका आचरण कितना अपनी ओर है। उतना वह जुडता है। उसमें जाननेके साथ सम्बन्ध नहीं है।
आचार्यदेव उपयोगमें श्रुतज्ञानका चिंतवन करते हैं, लेकिन उनको बाहर उपयोगमें राग तो मात्र संज्वलनका ही होता है। इसलिये उसे जाननेके साथ सम्बन्ध नहीं है। रागके साथ सम्बन्ध है। संज्वलनका ही (राग ही)। थोडी क्षण बाहर जाता है, फिर तुरन्त स्वानुभूतिमें जाता है। अभी तो विचार चलते हो, तुरन्त स्वानुभूतिमें जाते हैं, फिरसे बाहर आते हैं। उतना ही राग है कि उसमें थोडी देर टिकते हैं और पुनः अन्दर जाते हैं। अन्दर जाकर फिरसे बाहर आये तो जो विचार चलते थे, वह चालू होते हैं, वापस अन्दर जाते हैं। इसलिये उनका राग कितना है, उस पर आधार है।
मुमुक्षुः- माताजी! एक श्लोकमें ऐसा आता है, तबतक भेदविज्ञान भाओ कि जबतक ज्ञान ज्ञानमें स्थिर न हो जाये।
समाधानः- भेदज्ञान वहाँ तक भाना कि ज्ञान ज्ञानमें स्थिर न हो जाये। पूरा मोक्षमार्ग ही उसपर है। तेरेमें एकत्व और विभावसे विरक्त हो जा। वहाँसे सम्यग्दर्शनमें शुरूआत हुयी। स्वानुभूतिमें तो उसे बाहरका कोई विकल्प ही नहीं है। किसी भी प्रकारका। अन्दर स्थिर हो गया। लेकिन बाहर आये तो भेदज्ञानकी धारा चालू है। भेदज्ञानकी धारा चालू है, वह भेदज्ञानकी धारा तुजे कबतक भानी है? जबतक वीतराग नहीं हो जाये, स्वरूपमें स्थिर नहीं हो जाये और विकल्प पूरा टूट जाये, अन्दर ऐसे स्थिर हो जाये कि फिर बाहर ही नहीं आये। ऐसी भेदज्ञानकी धारा भानी। भेदज्ञानकी धारा भानी