Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

२१२ अर्थात भेदज्ञानके साथ तुजे ज्ञायककी धारा अन्दरसे ऐसी भानी कि तू स्वरूपमें स्थिर हो जा। फिर बाहरका विकल्प ही नहीं आये।

ऐसे भेदज्ञान-परसे विभक्त और स्वरूपमें एकत्व, ऐसा उसका अर्थ है। स्वरूपमें तू एकत्व हुआ, उसमें ऐसे स्थिर हो जा, ऐसी तेरी ज्ञायककी ज्ञाताधाराकी उग्रता कर, उसके साथ भेदज्ञानकी धारा, ऐसे लेना। भेदज्ञानकी धारा यानी जो-जो उदय आते हैं उससे वह भिन्न होता जाता है और ज्ञायककी धारा उग्र होती जाती है। इस ओर लो तो भेदज्ञानकी धारा यानी विकल्पसे भिन्न हुआ। जो-जो विकल्प आये उसमें टिकता नहीं और स्वरूपमें लीन होता है। जो विकल्प आये उसमें स्वरूपमें लीन होता है, तो उसमें टिकता नहीं। भिन्न तो हुआ है, विशेष भिन्न होकर स्वरूपमें लीन होता है। उसमें उग्रता ज्ञायककी उग्रता, स्वरूपकी लीनताकी उग्रता तू ऐसी कर, ऐसी चारित्रदशा प्रगट कर कि फिर बाहर ही नहीं आना पडे। इस ओर लेना भेदज्ञानकी धाराकी उग्रता।

अपने अस्तित्वमें क्या प्रगट हुआ? विकल्पसे भिन्न हुआ तो यहाँ क्या प्रगट हुआ? यहाँ ज्ञायककी ज्ञायकधारा प्रगट हुयी। शांतिकी धारा, समाधिकी धारा, लीनताकी धारा इस ओर प्रगट हुई। तो तू ऐसी लीनता कर, ऐसी ज्ञायककी उग्रता कर कि स्वरूपमें स्थिर हो जा और फिर बाहर ही नहीं आये। और इस ओर भेदज्ञानकी धारा ऐसी कर कि विकल्प मैं नहीं हूँ, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मुनिओंको ऐसी उग्रता हो गयी कि विकल्प आये वह टिकते ही नहीं। पानीके बहावकी भाँति पानी आकर चला जाये, वैसे तुरंत स्वरूपमें लीन होते हैं। ऐसी उन्हें भेदज्ञानकी धारा कहो या स्वरूपकी लीनता कहो, ऐसी उनकी ज्ञायककी उग्रता है। टिकते ही नहीं। जो भी उदय आये खिसक जाते है, तुरंत खिसक जाते हैं। भेदज्ञानकी धारा इतनी उग्र हो गयी। इस ओर विकल्पमें टिकते नहीं, उतनी भेदज्ञानकी धारा उग्र (है), इस ओर ज्ञायककी उग्र धारा, लीनताकी उग्र धारा हो गयी। स्वानुभूतिकी धारा उग्र हो गयी है। तुरंत स्वानुभूतिमें जाते हैं।

मुमुक्षुः- पूज्य भगवती माताजी! रुचिका पोषण और तत्त्वका घूटन हमेशा होनेके लिये आपने वचनामृतमें बताया है। वह तत्त्वका घूटन तो बहुत करते हैं, फिर भी हमेशा नहीं होता है, कहाँ क्षति रह जाती है? पूज्य भगवती माताजी!

समाधानः- घूटन करते हैं, लेकिन तत्त्वकी पहचानकर तत्त्वका घूटन यथार्थ होवे तो होवे। तत्त्व जो है उसका स्वभाव बराबर पहचाने। उसको जाने, तत्त्वका स्वभाव पहचाने और अंतरमें जाये। पुरुषार्थकी कमी है। स्वभावको पहचानता नहीं। ऊपर-ऊपरसे (चलता है)। ज्यादा तो एकत्वबुद्धि (चलती है)। अभ्यास तो विभावका (है)।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!