ज्ञाननय चक्षु एक स्वयंको अन्दर एक पंथ मिलता है। आत्मा क्या है? द्रव्य- गुण-पर्याय, सब क्या है? सब मार्ग मिलता है। विचार करके नक्की करे। आत्मा क्या, द्रव्य क्या, गुण क्या, पर्याय क्या। सब स्वरूप नक्की करे। परद्रव्य क्या, स्वद्रय क्या, सह सब नक्की होता है। जिनवाणी माता निमित्त बनती है। विचार तो स्वयंको करना रहता है। स्वयं करे तो होता है।
चिंतवन आखीर तक रहता है। वीतराग हो तब ध्यान-शुक्लध्यान हो तो द्रव्य- गुण-पर्यायके विचार होते हैं। यद्यपि उसमें शुभभाव है, फिर भी उसमें द्रव्य-गुण-पर्यायके विचार होते हैं। उसमें एक ऊपर स्थिर होता है तो केवलज्ञान होता है। शुभभावमें घुमता रहे, लेकिन श्रुतका चिंतवन आखिर तक रहता है। अंतरमें श्रुत साथ-साथ रहता है। और विचार आते हैं, यह मैं हूँ, यह मैं नहीं। द्रव्य-गुण-पर्याय सबका चिंतवन उसे आखिर तक रहता है। मूल उसमें प्रयोजनभूत समझे तो सब आ जाता है। एक आत्माको समझे। आत्मा कौन है? आत्माका स्वरूप क्या है? पुदगल क्या है? विभाव क्या है? मूल प्रयोजनभूत समझे तो उसमें सब आ जाता है। लेकिन श्रुतका चिंतवन- मैं यह हूँ, यह नहीं, ऐसा अमुक प्रयोजनभूत श्रुतका चिंतवन तो आखिर तक रहता है। साथ ही होता है।
आता है न? देव-गुरुका साथ, साथ-साथ होता है। भले शुभभाव है, तो भी साथ-साथ होता है। शुद्धात्मामें वह शुभभाव नहीं है। शुभभाव पुण्यबन्धका कारण है और वह आकूलता एवं हेयरूप है। उसपर लक्ष्य रहता है तो वीतरागदशा नहीं होती। तो भी जबतक वीतरागदशा नहीं होती, वह बाहर आता है तब उसे श्रुतका चिंतवन तो साथ-साथ होता ही है। अशुभसे बचनेके लिये वह शुभभावमें रहता है, तब श्रुतका चिंतवन, देव-गुरु-शास्त्र तीनों, सब साथ-साथ होता है।
मुमुक्षुः- दूसरे प्रकारका श्रुतका चिंतवन तो होता है न?
समाधानः- दूसरे प्रकारका यानी प्रयोजनभूत होना चाहिये। प्रयोजनभूतके साथ- साथ सब चिंतवन होता है तो वह लाभका कारण है। जैसे अधिक-अधिक ज्ञानकी निर्मलता हो तो वह लाभका कारण है। परन्तु मूल प्रयोजनभूत समझे तो उसमें पूरा