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मुमुक्षुः- महिमावंत है फिर भी यहाँ महिमा क्यों नहीं लगती। इतनी महिमा सुनते हैं, शास्त्रमें पढनेमें आता है...
समाधानः- लेकिन अन्दरसे स्वयंको सच्चा बैठे तो होवे न। शास्त्रमें आये, यह सब निःसार है, सारभूत आत्मा है...
मुमुक्षुः- आपके श्रीमुखसे सुनते हैं, गुरुदेवके प्रवचनमें (सुनते हैं), लेकिन यहाँ महिमा क्यों नहीं आती?
समाधानः- अंतरमें उतनी स्वयंकी तैयारी चाहिये। पुरुषार्थ करना चाहिये। पुरुषार्थ नहीं करता है, पुरुषार्थकी कमी है। आलसी हो गया है अनादिका। ऐसा अनुपम पदार्थ, उसे स्वयं नजर करके देखता नहीं। आता है न? "निज नयननी आळसे रे, निरख्या नहीं हरिने जरी।' वैसे स्वयंके नेत्रकी आलसके कारण स्वयं हरिको देखता नहीं। आलसके कारण, पुरुषार्थकी मंदताके कारण। पुरुषार्थकी मंदता है।
बाहरका दूसरा कुछ करना हो तो जल्दी कर लेता है, लेकिन अंतरका करनेमें बादमें.. बादमें करके आलस करता है। पुरुषार्थकी मन्दता है। जबतक नहीं होता, तबतक जिनेन्द्र देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा होती है, वह करे। लेकिन उस शुभभावसे भी आत्मा भिन्न है, उसकी श्रद्धा स्वयंको होनी चाहिये। उससे भी भेदज्ञान करनेका प्रयास करना चाहिये, प्रतीत तो ऐसी ही होनी चाहिये। लेकिन अशुभसे बचनेके लिये बीचमें शुभ आता है। लेकिन शुद्धात्मा चैतन्यतत्त्व तो निर्विकल्प तत्त्व है। उसे पहचानने के लिये, उसकी महिमा लानेका, उसका प्रयत्न करे, तत्त्वका विचार करे, शास्त्र स्वाध्याय करे। भावनगरमें अभी पाठशाला चलती है?
मुमुक्षुः- नहीं, अभी नहीं चलती है। यथार्थ निर्णयमें...? समाधानः- निर्णयमें ज्ञायकका जोर आये कि मैं ज्ञायक ही हूँ। यह कुछ भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं चैतन्यदेव पदार्थ कोई अनुपम हूँ और यह सब विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, वह सब आकूलतारूप है। मैं एक निराकूल तत्त्व आनन्दस्वरूप आत्मा हूँ। उसकी प्रतीत उसे होनी चाहिये, जोरदार प्रतीत आनी चाहिये। यह शरीर तो जड पदार्थ है, लेकिन यह विभाव जो चैतन्यके पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न हूँ। द्रव्य-गुण-पर्याय मेरे भिन्न है और परपदार्थके भिन्न है, ऐसा उसे दृढ निर्णय होना चाहिये। ज्ञायक पदार्थकी प्रतीत होनी चाहिये। ये रहा मैं, शाश्वत अनादिअनन्त तत्त्व हूँ। ...