मुमुक्षुः- भावभासन...
समाधानः- उसकी जिज्ञासा, भावना, लगनी सब होता है तब होता है। उसकी लगनीके बिना नहीं हो सकता है। अन्दर विचार करके स्वभावको ग्रहण करे, अन्दर सूक्ष्म उपयोग करके बारंबार विचार करके उसको ग्रहण करना चाहिये, तो ग्रहण होता है।
यह शरीर तो परद्रव्य है, विभाव भी अपना स्वभाव नहीं। जो जाननेवाला ज्ञायक है, वह ज्ञायक आत्माका स्वभाव है, जाननेका स्वभाव है। उसको ग्रहण करना। मात्र ऊपर-ऊपरसे ग्रहण करना तो नहीं होता, भीतरमेंसे ग्रहण करना चाहिये। जब नहीं होता है तब ऐसा विचार होता है, ऐसा बारंबार विचार करे, नक्की करे, परन्तु भीतरमेंसे ग्रहण करना है तो उसकी जिज्ञासा, लगनी लगे तब होता है। आत्माके बिना चैन नहीं पडे, गहराईसे लगनी लगे तब (होता है), लगनीके बिना नहीं हो सकता है। बाहरमें एकत्वबुद्धि अनादिकालसे हो रही है। उससे भेदज्ञान करे, एकत्व तोड कि मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो आत्मा ही हूँ, मैं ज्ञायक जाननेवाला हूँ। ऐसा नक्की तो करे परन्तु भीतरमेंसे परिणति होवे, तब उसका ग्रहण होवे, तब होता है। ज्ञायक पर दृष्टि करनी चाहिये, उसका ज्ञान करना चाहिये। विकल्पसे होता है, लेकिन भीतरमें सहज होवे तब यथार्थ होता है। उसके बिना यथार्थ (नहीं होता)।
मुमुक्षुः- अभी विकल्प तो रुकते ही नहीं। जैसे स्वाध्याय करते हैं, जाप भी देते हैं, मान लीजिये, तो विकल्प तो रुकते ही नहीं है।
समाधानः- अनादिका अभ्यास है। अनादिका वेग चल रहा है। उसमें धीरा होकर अपनेको ग्रहण करे तब होवे। प्रज्ञाछैनी जब प्रगट होवे, भीतरमें उसकी संधि (मालूम पडे कि), ज्ञान क्या है और विभाव क्या है, राग कौन है और मैं कौन हूँ, संधिको बराबर विचार करे, ग्रहण करे कि यह ज्ञान है, यह राग है। बराबर सूक्ष्म होकर उसका भेदज्ञान करे तो होता है, उसके बिना नहीं हो सकता।
आता है न कि, बारंबार गुरु बताते हैं। ... तब यदि अपनी तैयारी जागृत होवे तब होवे, यदि जागृत नहीं होवे तो नहीं होता है। धोबीके घरसे वस्त्र लेकर ओढ