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मुमुक्षुः- क्या उनकी मर्मज्ञ दृष्टि है! मूलको पकडे, डिगे नहीं, लाख कोशिष करो, हिंमतभाईकी उस बातमें.. सभी शास्त्रका गुजरातीकरण, हरिगीत घर-घरमें गाते हो, पढते हो.. कुन्दकुन्दाचार्यका उपकार तो मानते ही हैं, उसमें शंका नहीं है। अमृतचन्द्राचार्यका (उपकार मानते हैं), लेकिन गुजरातीमें तो हिंमतभाईने ही सब किया है। अदभुत!
समाधानः- गुरुदेवने स्पष्ट किया है।
मुमुक्षुः- वह तो स्पष्ट किया है, गुरुदेवने तो स्पष्ट किया ही है, लेकिन ये तो उससे भी विशेष आपकी वाणीको भी विशेष स्पष्ट की है, परन्तु इन्होंने जो किया है वह अलग ही है। भले ही उन्होेंने गुरुदेवकी वाणीको ही उसमें उतारी है, लेकिन वाणीको उतारना वह आसान काम नहीं है, आसान काम नहीं है।
मुमुक्षुः- आपको पण्डितजीका पक्षपात है। मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रका पक्षपात है और सत्यका भी पक्षपात है, ऐसा यदि कहना हो तो मैं संपूर्णरूपसे स्वीकार करता हूँ। गलत प्रशंसा करनेमें कभी किसीका माना नहीं है, परन्तु वह अदभुत है।
समाधानः- विचार करते थे। उनको पहलेसे ही विचार (चलते थे)। सबको समझानेका (भाव) पहलेसे ही है। छोटे थे तबसे है।
मुमुक्षुः- समझन तो है ही, परन्तु उससे भी विशेष मीठास है। कोई यदि नहीं समझे तो कुछ नहीं, उन्हेें कुछ नहीं।
समाधानः- गुरुदेवके प्रतापसे यह सब यहाँ है। गुरुदेवका प्रताप। जो महापुरुष होते हैं उनके पीछे सब होता है। वे महापुरुष ही ऐसे हुए इसलिये सब खीँचकर यहाँ आये। जो भी यहाँ आते हैं, सब ऐसी पात्रतावाले (आते हैं), गुरुदेवका तीर्थंकर द्रव्य था इसलिये उनके पीछे ऐसी शक्तिवाले सब आते हैं। वह सब गुरुदेवके चरणमें ही (अर्पित) है, हमने कुछ नहीं किया है।
मुमुक्षुः- ऐसा कहा जाता है, गणधर गूंथे... दिव्यध्वनि खिरती ही रहती है। मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचनका पुस्तक है, इसमें लिखा है कि साधकका ज्ञान हो, ज्ञानका स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें राग समाता नहीं। वह तो रागसे