Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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अंतरमें तैयारी होवे, शरीर और आत्मा, विभाव वह अपना स्वभाव नहीं है। शरीरतो परद्रव्य है, विभावस्वभाव अपना नहीं है। चैतन्य ज्ञायकमूर्ति आनन्दसे भरा हुआ है। ज्ञानसे भरा अनन्त गुणस्वरूप कोई अपूर्व पदार्थ है। उसका आत्मामें यथार्थ ज्ञान करना चाहिये, यथार्थ श्रद्धा करनी चाहिये, उसकी लगन लगनी चाहिये। दिन-रात लगनी लगे, उसका भेदज्ञान करे। जो-जो विकल्प आते हैं, विभाव होता हैं, उन सबसे मैं भिन्न हूँ, आत्मा तो भिन्न स्वभाव है। ज्ञायकका लक्षण पहचानना चाहिये। लक्षणके द्वारा वह लक्ष्य पहचानमें आता है। लक्षणसे आत्माको पहचानना चाहिये। उसकी श्रद्धा-प्रतीत यथार्थ (होनी चाहिये)। ऊपर-ऊपरसे नहीं, भीतरमेंसे होता है तब होता है।

भेदज्ञान करना चाहिये। बारंबार उसका भेदज्ञानका अभ्यास करनेसे, दिन और रात, क्षण-क्षणमें ऐसा अभ्यास होवे तब यह होता है। बारंबार उसका विकल्पसे अभ्यास नहीं, सहज होना चाहिये। पहले तो उसकी भावना करे, जिज्ञासा करे, विकल्पसे नक्की करे कि यह आत्मपदार्थ मैं हूँ। परन्तु भीतरमेंसे ऐसा सहज अभ्यास बारंबार होना चाहिये, तब होता है। नहीं होवे तबतक उसकी भावना करे, जिज्ञासा करे, तत्त्वका विचार करे। बारंबार शास्त्र अभ्यास करके मैं आत्मा हूँ, ऐसा ध्येय होना चाहिये कि मुजे आत्मा कैसे प्रगट हो? ऐसी दृष्टि, ऐसा ज्ञान सब होना चाहिये। तब होता है।

मुमुक्षुः- आगमके द्वारा तो ऐसा पढ लेते हैं, लेकिन जैसा आपने कहा कि अन्दरमें बात नहीं जाती है, ....

समाधानः- उसे बराबर नक्की करना चाहिये। भीतरमेंसे होना चाहिये। भीतरमें लगनी लगे, उसकी महिमा लगे कि यह कोई अनुपम पदार्थ है। महिमा लगे तब होता है। महिमा लगे, बारंबार विभावमें अच्छा नहीं लगे, यह सब आकूलतारूप है। ऐसा बोलनेमात्र नहीं, भीतरमें ऐसा लगे कि यह सब आकूलता है, दुःख है, मेरा स्वभाव नहीं है। मैं यह चैतन्यतत्त्व कोई अपूर्व सुखस्वरूप है, उसकी लगनी लगे तब होवे। शास्त्र अभ्यास निमित्त होता है। परन्तु करना तो अपनेको पडता है।

मुमुक्षुः- आपने सहज फरमाया, तो सहज और पुरुषार्थ, ये दोनों अलग-अलग चीज है कि एक ही चीज है?

समाधानः- सहज और पुरुषार्थ, पुरुषार्थ और सहज, ये दोनों अलग चीज है। पुरुषार्थ करना, सहज पुरुषार्थ। सहज कब होता है? सहज गुण। ज्ञानगुण, दर्शनगुण आदि सहज स्वभाव है। अनादिअनन्त सहज पदार्थ सहज स्वतःसिद्ध किसीने बनाया नहीं ऐसा सहज है। द्रव्य सहज है, गुण सहज है, सब सहज है, पर्याय सहज है। परन्तु पुरुषार्थ सहज होना चाहिये।

ज्ञानगुण भी सहज है। स्वतःसिद्ध होवे उसको सहज कहनेमें आता है। लेकन पुरुषार्थ