Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 222 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-२)

२२२ सहज होना चाहिये। विकल्पसे कृत्रिमतासे करे कि यह मैं हूँ, विचार करके नक्की करे। पहले तो ऐसा विचार करके नक्की करना पडता है। बादमें उसकी दशा ही ऐसी हो जाये। राग-द्वेषका अनादिका अभ्यास है तो उसको विकल्प नहीं करना पडता है। वह तो उसका वेग सहज होता है। अनादिका अभ्यास चल रहा है तो ऐसा उसे सहज जैसा हो गया है। वह तो वास्तविक विभाव है। वह वास्तविक सहज नहीं है, वह विभाव तो कृत्रिम है। अपना स्वभाव है वह सहज है। परन्तु उसका अभ्यास सहज होना चाहिये। पुरुषार्थ, पुरुषार्थ सहज होना चाहिये। स्वभाव सहज तो अनादिअनन्त है, पुरुषार्थ सहज होना चाहिये।

पुरुषार्थ कृत्रिमता करके, हठ करके करे तो ऐसे हठ करके पहले आती है तो हठसे नहीं होता। सहज अंतरमें ऐसा लगे तो बारंबार परिणति उस ओर चली जाये, पुरुषार्थकी परिणति चली जाये। ऐसे पुरुषार्थ सहज होना चाहिये। पुरुषार्थ सहज होना चाहिये। सहज यानी स्वतः, स्वतः यानी द्रव्य भी सहज, गुण सहज, ऐसे पुरुषार्थ सहज होना चाहिये।

मुमुक्षुः- जैसे राग-द्वेष करना सहज हो गया है। सहज हो जाता है, ऐसा सहज भाव, ऐसी सहजता।

समाधानः- ऐसी सहजता। पहले तो तत्त्वका विचार करे। तत्त्व विचार। तत्त्व विचार न चले तो उसके लिये शास्त्र अभ्यास। शास्त्र अभ्यास यानी शास्त्र अभ्यास कर लिया, ऐसे नहीं। मुझे आत्मा कैसे समझमें आये, ऐसा ध्येय रखकर करना कि मैं आत्मा कैसे समझुं? मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय क्या है? परके क्या है? मैं कैसे समझुँ? ऐसी जिज्ञासा (सहित करे)। शास्त्र पढ लिया, कर लिया तो सब हो गया, मैंने तो बहुत किया, ऐसा नहीं होना चाहिये। बहुत करना बाकी है, मुझे भीतरमें बहुत करना बाकी है। शास्त्र अभ्याससे सब कुछ नहीं हो जाता। भीतरमें बहुत करना बाकी है। ऐसी भावना, जिज्ञासा, उसकी लगनी लगनी चाहिये। सर्व प्रथम यह है।

शास्त्र अभ्यास, तत्त्व विचार करे। परन्तु तत्त्व विचार करके भी मैं आत्मा कैसे ग्रहण करुँ? ऐसा होना चाहिये। लगनी लगनी चाहिये। आत्माकी महिमा होनी चाहिये। सच्चा ज्ञान होना चाहिये। लेकिन वह ज्ञान मात्र रटनमात्र नहीं, यथार्थ ज्ञान होना चाहिये। उसका उपाय तो यही है। लगनी लगाये, तत्त्वका विचार करे, शास्त्र अभ्यास करे। लेकिन शास्त्र अभ्यास करने मात्र नहीं, ध्येय रखना चाहिये। आत्म स्वरूपको समझना चाहिये।

सच्चा ज्ञान। सच्चा ज्ञान करनेका पुरुषार्थ तो अपनेको करना पडता है। मात्र शास्त्र अभ्यास तो अनन्त कालसे बहुत कर लिया। लेकिन भीतरमें आत्माको नहीं पहचाना। अपनेको नहीं जानता, सबको जान लेता है। अपनेको नहीं जानता है तो क्या हुआ?