मुमुक्षुः- ...
समाधानः- स्वभावको सीमा नहीं होती, स्वभाव तो अनन्त होता है, विभावको सीमा होती है। विभाव अनन्त नहीं है। स्वभाव अनन्त.. अनन्त.. अनन्त स्वभाव (है)। स्वभाव परिणति प्रगट हो तो अनन्त काल पर्यंत परिणमन चलता है। अनन्त काल पर्यंत। स्वभावमें अनन्तता भरी है। विभावमें अनन्ता नहीं है। अपना स्वभाव नहीं है तो कहाँ- से अनन्तता आवे? सीमावाला है। विभावकी मर्यादा हो जाती है। अध्यवसान असंख्यात होते हैं, उसमें अनन्तता नहीं होती। स्वभाव अनन्त होता है।
पर्याय अपेक्षासे द्रव्यमें हानि-वृद्धि है, द्रव्य अपेक्षासे नहीं है। पर्याय अपेक्षासे ऐसा कहते हैं कि केवलज्ञान प्रगट हुआ, लोकालोकका ज्ञान प्रगट हुआ, केवलज्ञान शक्तिरूप हो गया, ऐसा सब पर्याय अपेक्षासे (कहनेमें आता है)। केवलज्ञान प्रगट नहीं है, केवलज्ञान शक्तिमें है, ऐसा सब कहनेमें आता है। द्रव्य अपेक्षासे वस्तु जैसी है वैसी है। उसमें वास्तविकरूपसे कुछ कम नहीं हुआ है, कुछ बढा भी नहीं है। परन्तु पर्यायकी अपेक्षासे- परिणतिकी अपेक्षासे ऐसा कहा जाय कि उसमें केवलज्ञानकी पर्याय प्रगट हुई, केवलज्ञानका विकास हुआ। निगोदमें जाये तब थोडा क्षयोपशम रहता है, ऐसा कहा जाय। वह सब पर्याय अपेक्षासे कहनेमें आता है। द्रव्य अपेक्षासे हानि-वृद्धि नहीं होती, परन्तु पर्याय अपेक्षासे है। पर्याय अपेक्षासे परिणति शुद्ध हो तो उसमें अगुरुलघु पर्यायकी तारतम्यता हानि-वृद्धि (होती है)। ऐसा वस्तुका स्वभाव तो रहता है। अनन्तगुण वृद्धि और अनन्तगुण हानि। उस प्रकारसे द्रव्य स्वतः परिणमता है। ऐसा द्रव्यका स्वभाव है। पर्यायमें वैसा होता है। वह पर्याय द्रव्यकी ही है। द्रव्यकी पर्यायमें भी ऐसी तारतम्यतारूप द्रव्य परिणमता है। पर्यायकी ओरसे, परिणतिकी ओरसे देखें तो उसमें हानि-वृद्धि उस प्रकारसे लागू होती है। परन्तु द्रव्य अपेक्षासे लागू नहीं पडती।
जो अगुरुलघु है उसकी वास्तविक हानि-वृद्धि नहीं होती कि केवलज्ञान हुआ तो ज्ञान बढ गया और ज्ञान कम हो गया, ऐसा नहीं है। उसकी पर्यायमें तारतम्यतारूप परिणमता है। ये तो ज्ञान शक्तिमें केवलज्ञान हो गया, फिर केवलज्ञान प्रगट होता है। वह तो उसके विकासकी अपेक्षासे है। स्वभावका आश्रय ले, द्रव्यका आश्रय ले तो