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देवलोकके आयुष्य पूरे हो जाते हैं तो फिर यह मनुष्यका आयुष्य तो कितना है। एकदम थोडा है। उस थोडेमें आत्माका कर लेने जैसा है।
गुरुदेव कहते थे न कि बिजलीकी चमकमें मोती पीरो ले। एक बिजलीकी चमककी भाँति मनुष्यका भव है। उसमें आत्माको ग्रहण कर लेने जैसा है। तीर्थंकरो, चक्रवर्तीओ आदि सब इस संसारका ऐसा स्वरूपको देखकर क्षणमात्रमें वैराग्यको प्राप्त होकर मुनि होकर चले जाते थे। इस संसारका स्वरूप ऐसा है। मुनि होकर जंगलमें आत्माका ध्यान करके केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। ओसका पानीका बिन्दु क्षणमात्रमें ऊड जाता है। तीर्थंकर भगवान जैसे बादलके बिखरता हुआ देखकर, पानीका बिन्दु और ओसका बिन्दु देखकर वैराग्यको प्राप्त होकर जंगलमें चले जाते थे, आत्माका ध्यान करते थे।
वैराग्य करके आत्माका स्वरूप और यह आत्मा कैसे पहचाननेमें आये यह भावना बढाने जैसी है। शुभमें देव-गुरु-शास्त्र, जिनेन्द्रदेव, गुरुदेव और शास्त्र, उनकी महिमा, शास्त्रका चिंतवन, शास्त्र स्वाध्याय और आत्माकी रुचि-आत्मा ज्ञायक कैसे पहचानमें आये, भेदज्ञान कैसे हो। यह शरीर भिन्न है। आत्मा तो शाश्वत है, आत्माका नाश नहीं होता। यह सब शरीरके फेरफार है। आत्मा तो जहाँ जाये वहाँ शाश्वत है। आत्मा कैसे ग्रहण हो? आत्मा ज्ञायकदेव महिमावंत है। वही करने जैसा है। (मेरा-मेरा) करता है, लेकिन मेरा कुछ नहीं है। सब परद्रव्य स्वतंत्र द्रव्य है। स्वयं अन्दर तैयारी करके संस्कार डाले हो वही अपना है।
मुमुक्षुः- जिस प्रकार जीव निकल गया, मैंने तो पहली बार ऐसे निकलते हुए देखा, तो ऐसा लगा कि यह सब मोह, माया, बन्धन सबकुछ यहाँ छोडकर क्षणमें निकल जाता है। मैंने प्रत्यक्ष पहली बार देखा। ऐसा लगता है कि यह जीव साथमें क्या लेकर जायेगा? मोह, माया, बन्धन जो मेरा-मेरा करता था, वह तो एक क्षणमां छूट जाता है।
समाधानः- वह तो एक क्षणमें सब छोडकर जाता है।
मुमुक्षुः- साथमें क्या जाता है?
समाधानः- साथमें अन्दर जो स्वयंने अच्छी भावना की हो वह जाती है। आत्माका स्वरूप... लेकिन आत्माको तो पहचाना नहीं, परन्तु अन्दर जो शुभभावना स्वयंने की हो वह साथमें जाती है। दूसरा कुछ साथमें नहीं जाता है। शुभाशुभ भाव जो जीवनमें किया वह सब उसके साथ है, दूसरा कुछ नहीं है।
मुमुक्षुः- ऐसा कैसा हम पुरुषार्थ करें कि जिससे हमें भविष्यमें गुरुदेव एवं आपके सान्निध्यका योग प्राप्त हो?
समाधानः- स्वयं अंतरमेंसे एक आत्मा ही सर्वस्व है, बाकी सबकुछ... अन्य