२३२ पदार्थमें रस कम हो जाये, यह सब निःसार है, कोई सारभूत वस्तु नहीं है। उसकी एकत्वबुद्धि अन्दर तोडनेका प्रयत्न करे कि मैं तो आत्मा शाश्वत हूँ, यह परद्रव्य कुछ भी मेरा नहीं है। परद्रव्य प्रतिका मोह तोड दे कि यह परद्रव्य मेरा नहीं है। व्यर्थमें मेरा-मेरा करता है। यह शरीर भी अपना नहीं है तो बाहरका घर, कुटुम्ब कोई अपना नहीं है। कोई वस्तु, कोई पैसा या कोई वस्तु अपनी नहीं है। सबकुछ यहाँ पडा रहता है। सब सँभालकर रखता हो, सब (छोडकर) एक क्षणमें स्वयं चला जाता है।
उन सब परसे ममता छोडकर और एक चैतन्यकी रुचि और चैतन्यकी महिमा बढाये और देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा (बढाये)। बाकी सब निःसार है, सब परसे मोह टूट जाये, मोह छोडकर एक आत्माकी ओरकी महिमा करे तो आत्मामें जो संस्कार डाले हैं वह साथमें आते हैं। और उसके साथ जो शुभभावना होती है, उससे जो पुण्य बन्धता है उससे अच्छा योग मिले, गुरुदेव मिले, जिनेन्द्रदेव मिले, वह सब शुभभावनासे जो पुण्य बन्धता है, उससे वह प्राप्त होता है।