समाधानः- ... तो है नहीं। द्रव्यस्वरूपसे देखे तो मेरेमें यह नहीं है, मैं तो ज्ञायक शुद्धात्मा हूँ। यह जो विभाविक वस्तु तो सब ऊपरसे आयी हुई, ऊपर-ऊपरकी है, मूल अंतरमें नहीं है। इसलिये मेरे मूलमें नहीं है। वह आयी है, अब वह टले कैसे? इसलिये उसे टालनेका प्रयत्न और अपना शुद्ध स्वरूप प्रगट करनेका उसका प्रयत्न चलता है।
मुमुक्षुः- इस प्रयोजनसे वह इस प्रकारसे विचार करता है? ज्ञानमें ऐसा जाननेके बावजूद, रुचिमें मैं ज्ञायक हूँ, इस प्रयोजनपूर्वक?
समाधानः- हाँ। मेरे स्वभावमें तो नहीं है। उसे रुचि तो ऐसी है। रुचि, प्रतीतमें ऐसा है कि यह मेरे स्वभावमें नहीं है। परन्तु वह है तो सही। वह है तो टले कैसे? मूल वस्तुमें नहीं है, लेकिन पर्यायमें यह ऊपर-ऊपरसे आया है। अब वह टले कैसे? मूल वस्तुमें नहीं है, परन्तु यह पर्यायमें ऊपर-ऊपरसे आया है, वह टले कैसे? उसे टालनेका प्रयत्न (करता है)। मेरेमें नहीं है, इसलिये अब टालनेका प्रयत्न कैसे हो, उसका उपाय खोजकर स्वयं टालनेका प्रयत्न करके, मेरे स्वभावमें नहीं है, मैं उसका कर्ता नहीं हूँ, मैं अनादि अनन्त ज्ञायक ही हूँ। दोनोंमें विरोध नहीं होता। यदि अंतरमें दोनोंकी अपेक्षा समझे। मूलमें नहीं है तो वह टल जाता है। मूलमें हो तो टले कैसे? मूलमें नहीं है इसीलिये वह टलता है। मूलमें हो तो-तो उसका स्वभाव हो जाये। तो टले नहीं। और वह दुःखरूप है। अपना स्वभाव तो दुःखरूप होता नहीं। इसलिये यह सब ऊपरसे आया हुआ है, वह परिणति चली जाये और मेरा स्वभाव है वह प्रगट हो जाये। इसप्रकार उसकी रुचि अपने स्वभावकी ओर रहती है कि मैं ज्ञायक हूँ और यह टले कैसे? यह सब उसे रुचिमें रहता है।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर! माताजी! अपने पीछली बार स्पष्टीकरण किया था उसमें आज भी अधिक स्पष्टीकरण हुआ। ... रुचिमें ऐसे लेना कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ और राग-द्वेष मेरेमें मेरेसे अत्यंत भिन्न है। मेरेमें होते ही नहीं। मैं..
समाधानः- भिन्न हूँ। भिन्न हूँ तो प्रगटरूपसे भिन्न पडनेका उसे प्रयत्न चलता है कि प्रगटरूपसे भिन्न कैसे होऊँ? ज्ञानमें उसे दोनों आते हैं कि यह मेरेमें होता