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मुमुक्षुः- सहित हूँ, ऐसा आये। क्षणिक अशुद्ध उपादानसे कथंचित सहित हूँ, ऐसा लेनेसे क्या दोष आता है?
समाधानः- क्या है उसमें? कथंचित शुद्ध हूँ? द्रव्यदृष्टिसे क्या लिया है?
मुमुक्षुः- यहाँ त्रिकाली द्रव्यको शुद्ध उपादान लिया है। अब, जो त्रिकाली शुद्ध उपादान है वह क्षणिक शुद्ध उपादानसे कथंचित सहित है। द्रव्य, पर्याय सहित है, ऐसा आया।
समाधानः- कथंचित अशुद्ध है ऐसा भी कहनेमें आता है। उसमें दोष नहीं है। कथंचित कोई अपेक्षासे अशुद्ध पर्यायवाला जीवको कहनेमें आता है और शुद्ध पर्यायवाला भी कहनेमें आता है। शुद्ध पर्याय जो दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी रत्नत्रय पर्याय प्रगट होती है वह पर्याय है, इसलिये उसे कथंचित द्रव्यसे अभिन्न कहनेमें आती है। लेकिन वह पर्याय है इसलिये। पर्याय, द्रव्यका ही स्वरूप है। लेकिन द्रव्य और पर्यायका भिन्न स्वरूप बताते हैं, इसलिये उसे कथिंचत कहा है। कथंचित अशुद्ध भी कहनेमें आता है। उसमें दोष नहीं आता। वह अपेक्षा है।
अनादिकालसे जीव राग-द्वेष करता है, उसे कथंचित कहनेमें आता है-कथिंचत द्रव्य अभिन्न कहनेमें आता है। अभिन्न शब्द है न?
मुमुक्षुः- क्षणिक उपादान।
समाधानः- हाँ, क्षणिक उपादान कहनेमें आता है। कथंचित अशुद्ध उपादान कहनेमें आता है, उसे अशुद्ध उपादान कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- फिर उसमें आगे आता है कि शुद्ध उपादान तो त्रिकाल है, लेकिन उसके लक्ष्यसे जो वर्तमान दशा प्रगट होती है, वह भी कर्ता-भोक्तापनेसे शून्य है। जो त्रिकालको पकडे ऐसी जो आनन्दकी दशा, उस रूप परिणत जीव, वह भी शुभा- शुभरागका, परपदार्थके कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे शून्य है। तो पर्यायका कर्ता तो पर्याय है, ऐसा आता है। पर्यायमें क्रिया होती है। यहाँ तो पर्यायका भी अकर्तृत्व-अभोक्तृत्व किसप्रकार कहा है?
समाधानः- पर्यायका अकर्तृत्व-अभोक्तृत्व द्रव्यकी अपेक्षासे अकर्ता-अभोक्ता है। पर्याय पर्यायमें तो कर्ता-भोक्ता है, पर्याय अपेक्षासे। द्रव्य, पर्यायका अकर्ता-अभोक्ता द्रव्यदृष्टि अपेक्षासे कहनेमें आता है। लेकिन द्रव्य और पर्यायको कथंचित अभेदरूप कहो तो उसे कर्ता-भोक्ता कहनेमें आता है। उस अपेक्षासे है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे अकर्ता- अभोक्ता कहा है। पर्यायदृष्टिसे उसे कर्ता-भोक्ता कहनेमें आता है और द्रव्यदृष्टिसे उसे अकर्ता-अभोक्ता कहनेमें आता है। पर्यायदृष्टिसे उसे कहनेमें आता है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे बात है।