Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

२४२ ऐसा भी बने। गुरुदेवका तो ऐसा था कि जो अन्दर कार्य करे उसे असर किये बिना रहे ही नहीं। लेकिन स्वयंको कार्य करना है। स्वयं कार्य करता नहीं। स्वयंकी भूल है।

मुमुक्षुः- स्वयंको स्वस्थ नहीं होना है।

समाधानः- स्वयं तैयार नहीं होता। "कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई'। स्वयंकी भूल है, पर क्या करे? बाहरके साधन क्या करे? स्वयं ही नहीं पलटता है।

मुमुक्षुः- पलटना इतना कठिन है कि स्वयं पलटता नहीं?

समाधानः- अनादिका अभ्यास है। कठिन नहीं है, सहज है। लेकिन स्वयंका प्रमाद है। ... जागृत ही नहीं होता, ऐसा है। जागृत होना अपने हाथकी बात है। गुरुदेवकी वाणी सबको जागृत करती है। सबको रुचि तो हुई, फिर पुरुषार्थ करना तो स्वयंके हाथमें है। उनक वाणी ऐसी थी कि सबको रुचि हो जाय। आत्माकी ओर रुचि प्रगट हो जाय। यह सब संसार निःसार है। आत्मा ही एक सारभूत है। ऐसे कितने ही जीवोंको अन्दर रुचि हो जाय। लेकिन फिर आगे बढना अपने हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- आपकी वाणी सुननी है...

समाधानः- ... विभाव परिणति होती है, वह स्वयंके पुरुषार्थकी मंदतासे होती है। मंदतासे होती है, लेकिन उसमेंसे भेदज्ञान करे कि मैं यह चैतन्य हूँ, दूसरा कुछ मेरा स्वरूप नहीं है। स्वयं ग्रहण करे उसमें उसे अपना पूर्ण स्वरूप उसे प्रतीतमें आ गया। लेकिन बादमें उसे भेदज्ञानकी धारा निरंतर रहती है। ऐसे विकल्पसे निर्णय करे ऐसे नहीं, परंतु सहज रहे। सहज प्रतिक्षण दिन-रात, क्षण-क्षणमें भिन्न परिणति रहे। उसमें परिणति सहज रहे। उसनें लीनता करते-करते उसे सहज लीनता बढे तो पूर्ण पर्याय प्रगट होती है। पूर्ण स्वरूप तो केवलज्ञान हो तब होता है।

मुमुक्षुः- ग्रहण कैसे करना? कैसा पुरुषार्थ करना?

समाधानः- पूर्ण केवलज्ञान तो इस कालमें प्रगट नहीं होता। अभी तो भेदज्ञान और सम्यग्दर्शन मात्र होता है और चारित्रदशा तक अमुक (हद) तक पहुँचा जा सकता है। क्योंकि अभी उतनी पुरुषार्थकी धारा केवलज्ञान हो वहाँ तक (नहीं पहुँचती)। यह पंचम काल है न। जब यहाँ महावीर भगवान विचरते थे, तब यहाँ केवलज्ञान पर्यंत सब पहुँचते थे। लेकिन अभी तो एक सम्यग्दर्शन और उसकी अमुक प्रकारसे लीनता होती है। लेकिन उसका पूर्ण ग्रहण, उसका द्रव्य स्वरूप तो पहले ग्रहण हो जाता है।

मैं चैतन्य द्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत हूँ। मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ। जो जाननेवाला है वह स्वयं है। स्वयं ही जाननेवाला है। उसे पूर्ण ग्रहण हो जाना चाहिये। उसके बाद उसकी पर्याय अर्थात उसकी जो केवलज्ञानकी दशा है वह बादमें होती है। लेकिन