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पहले उसे पूर्ण ग्रहण होता है। पूर्ण ग्रहण होकर भेदज्ञानकी दशा रहती है। भेदज्ञानकी दशामेंसे वह स्वरूपमें ऐसा लीन होता है कि कोई बार उसे विकल्प छूट जाता है। विकल्प छूटकर न्यारा हो जाता है। न्यारा होता है, उसमें ज्ञान और आनंदसे भरा आत्मा है। ज्ञान-आनन्दसे अपूर्व भरा है। बाह्यसे उपयोग छूटकर अंतरमें जाय। ऐसा उपयोग (हो जाता है कि) जगतसे जुदा कोई जात्यांतर कि जिसकी जाति जगतके साथ मेल नहीं आती। ऐसा उसे अपूर्व आनन्द और निर्विकल्प दशा कोई अपूर्व प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन तीन प्रकारके हैं न? तो उपशम सम्यग्दर्शन तो नियमसे चला जाता है न?
समाधानः- हाँ।
मुमुक्षुः- तो फिर ऐसा क्या करना कि ज्ञानीका ही संयोग मिले? मुझे तो इतना ही कहना है कि मुझे ऐसा कहो कि गुरुदेवके पास ही मेरा जन्म हो, उसके अलावा कुछ नहीं। उसके लिये जो कुछ करना पडे वह करनेके लिये मैं तैयार हूँ। मुझे इतनी आत्माकी रुचि है कि उतना मुझे कोई साथ नहीं देता। मैंने कितना सहन किया है धर्मके लिये। मुझे कितनी रुचि, मुझे आत्माकी तीव्र रुचि है। एक आत्मा ही चाहिये।
समाधानः- गुरुदेवके पास जन्म हो, वह वैसी भावना रखे कि मुझे संतोंका समागम मिले, गुरुका समागम मिले।
मुमुक्षुः- मुझे कितने याद आते हैं। मैंने देखा नहीं है। कल भी मैं सारी रात रोती थी, गुरुदेवको याद करके। लेकिन मुझे कोई समझाता नहीं। मुझे आत्मा चाहिये, कोई वाणी नहीं है। कितनी रोती थी।
समाधानः- गुरुदेव स्वप्नमें आते हैं?
मुमुक्षुः- हाँ, मैंने तो देखा नहीं है और इस प्रकार आते हैं। इसलिये मैं आपके पास आयी हूँ। मुझे मानो कि कहते हो, दिलासा देते हैं। मुझे इतनी अटूट श्रद्धा है। मैंने सोनगढ भी आज ही देखा।
समाधानः- सोनगढ आज ही देखा? स्वाध्याय मंदिर है न? उसमें गुरुदेव ४५ साल (रहे), स्वाध्यायमें रहे। पहले तीन साल एक बंगलेमें रहे। फिर तीन सालके बाद यहाँ (रहने लगे)। गुरुदेव इस सोनगढमें ४५ साल रहे। तीन सालके बाद हमेशा सोनगढमें स्वाध्याय मंदिर है न? उसमें उनकी प्रतिकृति है। वहाँ गुरुदेव ४५ साल, लगभग ४५ साल तक यहाँ विराजे हैं। जब-जब चातुर्मास आये, चातुर्मासमें नहीं जाते थे। थोडे साल तो यहीं रहते थे। विहार भी नहीं करते थे। बाहर भी नहीं जाते थे। चार- पाँच सालके (बाद जाने लगे)। फिर विहार राजकोट, मुंबई बहुत बार पधारते थे। मुंबई