Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 244 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-२)

२४४ पधारते थे, लेकिन आपको मालूम नहीं होगा।

मुमुक्षुः- लेकिन मैं जैन नहीं हूँ ना, बहिन! इसलिये मुझे क्या मालूम कि यह धर्म है कि ऐसा है। एक बार श्रीमद राजचंद्र पुस्तक हाथमें आया, तो मुझे लगा, अरे..! ऐसा जैन धर्म है! फिर खोजते-खोजते कितना सहन करके देववलालीमें रुकी। ध्यान करती थी, वहाँ गुफामें। सबको यही प्रार्थना करती थी। लेकिन पीछले तीन महिनेमें गुरुदेवका मुझे इतना निश्चय हो गया है कि... लिखना हो तो मुझे अन्दरसे आता है।

समाधानः- ऐसा आता है। आपकी भावना अच्छी है। बहन! थोडा विचार करना, कुछ वांचन करना। द्रव्य और पर्याय। द्रव्य-गुण और पर्याय द्रव्यका स्वरूप है। द्रव्यमें वह ज्ञायक है। वह ज्ञायक स्वतः ज्ञायक है। किसीने उसे बनाया नहीं है। ज्ञायक है वह ज्ञायक है। ज्ञायक ऐसा है कि उसमें अनन्त गुण भरे हैं। अनन्त गुणमें एक ज्ञान और एक आनन्द (है)। आनन्द गुण तो ऐसा है कि कोई अनुपम है। कोई विकल्पसे उसकी कल्पना नहीं हो सकती। ऐसा कोई न्यारा ही है। विकल्प छूट जाय। वह कोई अलग ही है। आनन्द, ज्ञान इत्यादि अनन्त गुणोंसे भरा है कि जिसका पार नहीं। जिसे बोल भी नहीं सकते, जो वाणीमें नहीं आते। कोई अनन्त गुणसे भरा ऐसा कोई आत्मा है। पहले उसकी श्रद्धा होती है कि यह जाननेवाला ज्ञायक है। ज्ञान होता है न? लेकिन वह ज्ञायक (है)। ज्ञायकको ग्रहण करना। लेकिन उसकी स्वानुभूति और उसके अनन्त गुण जो स्वानुभूतिमें आते हैं, अन्दर विकल्प छूट जाय वह अन्दरमें कुछ अलग होता है।

उसे अन्दर स्वानुभूति कोई अलग (होती है)। फिर भी आप अन्दर विचार करना। अन्दर भेदज्ञानकी धारा क्षण-भण (चलती है)। उसे विचार नहीं करना पडे कि मैं यह भिन्न हूँ। पुरुषार्थकी धारा अन्दरमें चलती रहे। मैं यह भिन्न हूँ, भिन्न हूँ। जो-जो विज्ञकल्प आये उसी क्षण मैं भिन्न हूँ। शुभभाव जो आते हैं कि मुझे गुरुदेव मिले, ऐसे शुभभाव, वह सब शुभभाव है। और दूसरे लौकिक भाव है वह अशुभभाव है। दोनों भावसे भिन्न आत्मा है। शास्त्रमें आता है कि उन सबसे भिन्न है, आत्मा तो भिन्न ही है। उसकी अंतरमें श्रद्धा बराबर करनी। और ज्ञायक-ज्ञायक करते हुए यदि उसमें लीन हा जाय तो पूर्णता होती है। लेकिन वह लीनता, अभी तो गृहस्थाश्रममें है इसलिये सम्यग्दर्शन होता है। सम्यग्दर्शनमें उसे भेदज्ञानकी धारा, स्वानुभूति होती है। स्वानुभूतिमेंसे पुनः बाहर आता है। बाहर आता है तो भेदज्ञानकी धारा चलती है। अन्दर जाय तो स्वानुभूति होती है। ऐसी दशा अमुक प्रकारकी होती है।

उसके बाद उसे जब मुनिदशा आती है, मुनिदशा आये उसमें ऐसा त्याग हो जाता