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है कि जंगलमें जाकर क्षण-क्षणमें स्वानुभूति करते हैं। क्षण-क्षणमें स्वानुभूति। ऐसी दशा हो जाती है। मुनिओंको ऐसी प्रतिक्षण स्वानुभति होते-होते, वे ऐसे अन्दर स्थिर हो जाते हैं कि उसमें पूर्ण केवलज्ञान हो जाय। तब पूर्ण होता है। उसे ऐसी कोई मुनिदशा आती है कि उसे जगतकी कुछ पडी नहीं है। ऐसे मुनि जंगलमें रहते हैं। जंगलमें रहते हैं उसे बाहरकी खानेकी, पीनेकी, आहारकी कुछ (पडी) नहीं है। वे जंगलमें रहते हैं। ऐसी मुनिदशा आये, ऐसी मुनिदशा आये उसमें ऐसे लीन हो जाते हैं, तब उन्हें केवलज्ञान पूर्ण दशा प्रगट होती है। पूर्ण दशा करनेके लिये, वह तो बहुत तैयारी हो तब होती है। लेकिन उसके पहले जो सम्यग्दर्शन होता है, उस सम्यग्दर्शनमें भवका अभाव हो जाता है। फिर उसे अधिक भव नहीं रहते।
मुमुक्षुः- ऐसा ही लगता है कि भव है ही नहीं। इतना बल क्यों आता है?
समाधानः- अच्छी बात है, लेकिन अन्दर थोडा अधिक (प्रयत्न करना)। गुरुदेवकी भावना रहती हो तो गुरुदेव प्रति शुभभावना रहे तो उसका जन्म उसी प्रकारसे होता है। जिसे उग्र शुभभावना रहती हो, उग्र भावनासे ऐसा बनता है। और उपशम सम्यग्दर्शनकी तो स्थिति ही ऐसी है कि अनादिमें सर्व प्रथम हो तब उपशम ही होता है, फिर उसे क्षयोपशम होता है। वह तो ऐसा ही .. है।
मुमुक्षुः- वह चला नहीं जाय, उसके लिये क्या करना?
समाधानः- भेदज्ञानकी धारा चालू रखनी।
मुमुक्षुः- हमें तो कोई ज्ञानीका समागम भी नहिं मिलता, किसके पास (जायें)? आपमें तो सर्वस्व है, फिर भी कोई प्रेरणा देनेवाला, कोई वाणी.. कहाँ मिले?
समाधानः- ये देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य हो तो होता है। मुंबईमें साधर्मी हैं, अपना वांचन चलता है। आप कहाँ रहते हो?
मुमुक्षुः- बोरीवलीमें।
समाधानः- मलाड आपके पास है?
मुमुक्षुः- हाँ। यहाँ इतनी दूर आयी हूँ तो वहाँ तो (जा सकती हूँ)। मुझे तो चाहे जैसे हो, चाहिये।
समाधानः- मलाडमें वांचन चलता है। गुरुदेवके शास्त्रका स्वाध्याय होता है, वहाँ मन्दिर है।
मुमुक्षुः- लेकिन यह तत्त्व इतना गहरा है, पढत-पढते ऐसा होता है, एक वाक्य पढने पर लगता है, मुझे उनका हृदय अब मालूम पडता है। मैंने तो देखे नहीं। ऐसा सब लिखा है! मानो साक्षात भगवानका लिखा हो!
समाधानः- हाँ, साक्षात भगवानका लिखा है।