२६
मूल द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे भिन्न करनेमें आता है। उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि वह पर्याय कहीं और है और द्रव्य भिन्न हो गया। तो अनुभव किसे होगा? सिद्धका अनुभव किसे होगा? सब गुण भिन्न-भिन्न हो गये, पर्याय भिन्न हो गयी, फिर द्रव्य कहाँ रह गया? तो द्रव्य शून्य हो गया। अपेक्षा समझनी चाहिये।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर।
समाधानः- सब भिन्न-भिन्न करो तो फिर द्रव्य कहाँ रहता है? तो अनुभव किसे होगा? आनन्दका अनुभव। राग-द्वेषका अनुभव होता है। उस रागको जड ही कहोगे तो राग और द्वेषकी कलुषितता होती है वह मुझे नहीं होती है। नहीं होती है, द्रव्य अपेक्षासे। लेकिन उससे भिन्न पडना, आनन्द प्रगट करना, वह वेदन किसे होगा? यदि सब भिन्न-भिन्न लटकता हो तो।
मूल वस्तुका स्वभाव समझना है। पानीकी शीतलता समझनी है। लेकिन पानी मलिन हुआ ही नहीं है तो शुद्ध करना रहेगा ही नहीं। पानी मलिन हुआ है, वह पर्याय अपेक्षासे। परन्तु मूल शीतलता हो तो शीतलता आती है। पानी गर्म होता है, लेकिन वास्तविक गर्म नहीं हुआ है, उसकी शीतलता चली नहीं गयी, पुनः शीतल हो जाता है। मूल स्वभावको पहचानना। पर्यायकी मलिनता कोई भी अपेक्षासे नहीं है ऐसा नहीं होता। कोई अपेक्षासे भिन्न है और कोई अपेक्षासे अभिन्न है। दोनों अपेक्षा (समझनी चाहिये)।
जिसका जितना वजन हो, पर्यायकी अपेक्षा पर्याय जितनी, द्रव्यकी अपेक्षा द्रव्य जितनी। द्रव्य मूल स्वभाव है, पर्याय प्रतिक्षण बदलती है। परन्तु द्रव्यकी ही पर्याय होती है, निराधार नहीं लटकती।
मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवकी कृपासे और आपके आशीर्वादसे तत्त्व थोडा समझमें आता है, बार-बार घोलनमें आता है, ... कहाँ अटकना होता है?
समाधानः- अन्दर स्वयंके पुरुषार्थकी क्षति है। अन्दर जिज्ञासा, अन्दर उतनी गहराईसे आत्माकी ओर झुकना, आत्माका लक्षण पहचाननेके लिये। आत्मा क्या है, उसका स्वभाव क्या है, उसे पहचाननेके लिये उतना प्रयत्न जो अन्दर चाहिये, उतना प्रयत्न चलता नहीं। प्रयत्नकी क्षति है। स्वयंकी उतनी जिज्ञासा, अन्दर रुचि होनेपर भी अभी जो विशेष दृढता अन्दर होनी चाहिये, रुचिकी अधिक दृढता, प्रयत्न सबमें क्षति रहती है, इसीलिये आगे नहीं बढ सकता है।
मुमुक्षुः- विकल्पमें बराबर भासित होता है। घण्टों तक बैठनेके बाद भी कहाँ अटकना होता है?
समाधानः- प्रयत्नकी क्षति है। अनादिकी एकत्वबुद्धि है, उस एकत्वबुद्धिका अनादिसे