२६४ वह बदल नहीं सकता। बाहरका पुण्यका उदय आनेवाला हो तो पुण्यका आये, पापका (हो तो पापका आये)। शरीरका रोग-निरोग, धन, निर्धन वह सब पुण्य-पापके कारण आता है। उसमें स्वयं फेरफार नहीं कर सकता। ज्ञायककी ओर रुचि करनी, पुरुषार्थ करना, वह चैतन्यकी परिणतिके हाथमें है। फिर कितना पुरुषार्थ चले वह उसकी जैसी परिणतिकी गति हो वैसा होता है। बाकी क्रमबद्धकी चिंता करनेकी आवश्यकता नहीं है।
जो स्वयं ज्ञायकको पुरुषार्थसे पहचाने, पुरुषार्थसे भेदज्ञान करे, मैं ज्ञायक हूँ, भेदज्ञानकी धारा पुरुषार्थसे प्रगट हो, आगे बढे पुरुषार्थसे, स्वानुभूतिकी परिणति पुरुषार्थसे, लीनता होती है पुरुषार्थसे, सबकुछ उससे होता है। केवलज्ञान तक पुरुषार्थकी परिणति होती है और उस अनुसार उसकी पर्यायें परिणमती हैं। उसके पुरुषार्थकी गति, उसका बल जो काम करे, उस प्रकारकी उसकी पर्यायेंं परिणमती हैं। उसके अनुकूल। ...उतना धीरे होता है, जितनी तीव्रता उतना जल्दी होता है। मंद-तीव्र सब चैतन्यकी परिणतिके हाथमें है। .. वह कर्ताबुद्धि छुडानेके लिये है। मैं परका कर सकता हूँ और मेरेसे सब होता है, ऐसी जो उसकी बुद्धि है, उसे छुडानेके लिये। परपदार्थमें कोई फेरफार स्वयं कर नहीं सकता, जैसा होना होता है वैसा होता है। मैं दूसरेका अच्छा या बूरा, शरीरके फेरफार या बाहरका फेरफार कुछ नहीं कर सकता। स्वयंकी चैतन्यकी परिणतिमें अपने स्वभावकी ओर पुरुषार्थकी गति हो, उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य जो उसके योग्य पर्यायें प्रगट होनी होती है, वह स्वतः प्रगट होती है, उसे मैं प्रगट करुँ...
सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। स्वयं स्वयंकी ओर पुरुषार्थसे झुका, उसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि पर्यायें प्रगट होती है, वह स्वयं परिणमती है। अमुक निर्मलता विशेष स्वयं परिणमती है। स्वयं अपने विकल्पसे उसे परिणमित नहीं करता। पुरुषार्थकी गति स्वयंकी ओर हो वह सब स्वयं परिणमता है। इसलिये अपनी कर्तृत्वबुद्धि छुडानेके लिये क्रमबद्ध है।
स्वयं ज्ञायक है। उसमें पुरुषार्थ छुडानेके लिये क्रमबद्ध नहीं है। पुरुषार्थ करनेके लिये है और उसमें कर्ताबुद्धि तोडनेके लिये, ज्ञायक होनेके लिये है। तू ज्ञायक है, देखता रह। तेरा करनेसे कुछ होता नहीं। तू ज्ञायक है। ज्ञाता होनेके लिये है। .. ऐसा कहते थे, ज्ञायक हो जा। बस, ऐसा ही है। ज्ञाता होना है।
मुुमुक्षुः- आचार्यदेवने शिर्षकमें वही लिखा है, अकर्ता होनेके लिये बात है। समाधानः- अकर्ता होनेके लिये है। (पुरुषार्थकी) पुष्टि करनेके लिये, पुरुषार्थको मन्दर करनेके लिये नहीं। जैसा होना होगा वैसा होगा, तू समझा ही नहीं, ऐसा कहे। जिसे ज्ञायक प्रगट हुआ उसे ही क्रमबद्ध है, ऐसा कहते थे। ज्ञायक प्रगट हो, उसे ही क्रमबद्ध है, दूसरेको नहीं है, ऐसा कहते थे। जो ज्ञाता हुआ, उसे क्रमबद्ध है।