२६६ पद ते वरते जयते। वह पद नमन करने योग्य है, प्रधान है और जयते-वह जय स्वरूप है। ऐसा ही वह सुखका धाम है।
वह सम्यग्दर्शनमें प्रगट होता है, मुनिओंको प्रगट होता है। दिन और रात जिसके ध्यानमें मुनि बस रहे हैं। उस अनंत सुखके धाममें। दूसरा सुखका धाम बाहर कहीं नहीं है। आत्मामें सुखका धाम है। अनंत सुखका धाम है। अनंत आनन्द भरा है, अनुपम आनन्द भरा है। उसमें शांति, उसमें शांति बरस रही है। प्रशांति अनंत सुधामय। अनंत सुधा। जगतमें कहीं अमृत नहीं है, आत्मामें ही अमृत है। अनंत सुधास्वरूप है। ऐसे पदको मैं नमस्कार करता हूँ। वह प्रधान स्वरूप है, जय स्वरूप है, ऐसे आत्माके स्वरूपको मैं नमन करता हूँ। जो जय स्वरूप वर्तता है अथवा जो प्रधान है।
आत्माकी महिमा आयी है तो कहते हैं कि दिन-रात जिसमें मुनि बसते हैं, ऐसे पदको मैं नमस्कार करता हूँ। ऐसे पदको चाहते हैं। जगतमें कोई पद इष्ट नहीं है। देवलोकका पद या चक्रवर्तीका पद, कोई पद वह पद नहीं है। इस आत्माका पद ही सर्वोत्कृष्ट है। सुखधाम अनंत, अनंत सुखका धाम है। आत्मामें अनंत शांति प्रगट होती है। प्रशांति। इस संसारमें दुःख दावानलमें जलता हुआ, जिसमें शांतिका एक अंश नहीं है और आत्मामें अनंत शांति (भरी है)। बारंबार उसीमें बस जाय, कब वह प्रगट हो, मुनिदशा, केवलज्ञान, वह पद, उस पदकी ही बारंबार भावना करते हैं। वह पद प्रगट हुआ है, फिर भी बारंबार उसमें बसनेकी, दिन रात उसमें ही बसनेकी भावना भाते हैं।
केवलज्ञान भी नहीं चाहिये। केवलज्ञानकी पर्याय पर भी जिसकी दृष्टि नहीं है। मुझे एक केवलज्ञान चाहिये, ऐसा भी नहीं है। जो केवलज्ञान लोकालोक जाने, वह लोकालोक जाननेकी जिसे पडी नहीं है। लोकालोक जाननेमें आये तो ठीक, ऐसा जाननेकी नहीं पडी है। केवलज्ञान यानी लोकालोकको (जाने), ऐसा अर्थ (है, लेकिन) लोकालोकको जाननेकी नहीं पडी है, परंतु मेरा सुखका धाम जो आत्मा है, वह मुझे प्रगट होओ। पूर्ण प्रगट हो जाओ और उसमें मैं पूर्णरूपसे बस जाऊँ। वह मेरा आत्मपद चाहिये। लेकिन केवलज्ञानकी पर्याय, एक गुण, एक पर्याय मुझे नहीं चाहिये परंतु पूर्ण आत्मा चाहिये। केवलज्ञान लोकालोकको जाननेकी पडी नहीं है, जाननेकी नहीं पडी है, आत्मामें बसनेकी पडी है।
जैनका केवलज्ञान नहीं चाहिये। अर्थात केवलज्ञान पर दृष्टि नहीं है, आत्माकी साधना करनेवालेको केवलज्ञान पर दृष्टि नहीं है। आत्माका पूर्ण वीतरागपद, उस पर दृष्टि है। मुझे वीतरागी पद प्राप्त होओ। एक आत्मा प्रशांत-शांतिमय जो आत्मा, आत्माका वीतरागी