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पद प्राप्त हो। उसमें केवलज्ञान लोक जाननेमें आये या नहीं, उसकी कोई दरकार नहीं है। लोकालोक जाननेमें आये या नहीं जाननेमें आये, उसका कुछ नहीं है। मुझे एक वीतरागी पद पूर्ण आत्मपद प्राप्त होओ। ऐसी उसकी भावना है। केवलज्ञानकी दरकार नहीं है। वीतराग दशा प्रगट चाहिये। आत्मदशा, आत्मामें ही बसनेकी जिसे दरकार है। मैं आत्मामें बस जाऊँ। यह विभाव मेरा स्वरूप नहीं है, विभाव मेरा रहनेका स्थान नहीं है, रहनेका मेरा घर भी नहीं है, मेरा रहनेका स्थान आत्मामें है। यह तो पर है। मेरा अपना स्वघर आत्मा है। मेरे स्वरूपमें मैं बस जाऊँ, मुझसे स्वरूप चाहिये। केवलज्ञान नहीं चाहिये। केवलज्ञान पर उसकी दृष्टि नहीं है। (वीतराग) स्वरूप आत्मा चाहिये। शांतसमुद्र ऐसा आत्मा आनन्दसे भरा है। शांतिमय आत्मा प्रगट हो, उसकी परिणति प्रगट हो।