२६८
समाधानः- .. कहते हैं कि भेदज्ञान करना। परंतु भेदज्ञान कैसे करना? तीक्ष्णतासे स्वयं आत्माको और विभावको भिन्न (करे)। यह मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव भिन्न है, ऐसे स्वयं अंतरमेंसे बराबर पहचान ले। और उससे स्वयंको विभावका रस छूटकर और स्वभावका रस लगे तो उसे अंतरमें सूझे। विभावसे भिन्न होकर स्वभावको ग्रहण करना, उसे ग्रहण करनेमें उसकी चाबी हाथमें आती है। लेकिन उसे स्वयंको अन्दर उतनी जिज्ञासा हो तो होता है। यह मेरा स्वभाव है, यह मेरा स्वभाव नहीं है। इस प्रकार ज्ञायकको ग्रहण करके अंतरमें ऊतर जाय। जिसे जिज्ञासा होती है उसे चाबी हाथ लग जाती है।
मुमुक्षुः- चाबीका अर्थ बारंबार भेदज्ञान?
समाधानः- बारंबार भेदज्ञान करना। आत्माका-ज्ञायकका ज्ञानलक्षण है, उसे पहचान लेना। उसे बराबर पहचानकर आत्माको ग्रहण करना। उसमें कोई क्रियाएँ या दूसरा कुछ करना पडे ऐसा नहीं है। अन्दर चाबी मिल जाय, जिज्ञासा हो उसे चाबी मिल जाती है। ऐसा है। जिसे जिज्ञासा हो उसे।
मुमुक्षुः- जिज्ञासाके साथ बहुत सम्बन्ध है।
समाधानः- जिज्ञासाके साथ सम्बन्ध है। जिसे आत्माके बिना चैन नहीं पडता, जिसे आत्मा ही चाहिये उसे चाबी मिले बिना नहीं रहती। स्वयंको भिन्न होना है, ज्ञायकको ग्रहण करना ही है तो उसे चाबी मिल जाती है। इसलिये उसके लिये कोई हठयोग करना पडे, ऐसा नहीं है। परन्तु स्वयंकी भावना ही, स्वयंको आत्माके बिना चैन नहीं पडे, स्वयंकी भावना ही कार्य करती है। भावनाके साथ पुरुषार्थ जुडा रहता है।
.. साथमें होता है। जिसे जिज्ञासा है, उसके साथ उसे वैराग्य होता है। विभावको पीठ दी है, आत्मा ही चाहिये। उसके साथ वैराग्य होता है। स्वयंको ग्रहण करनेके लिये उसका प्रयोजनभूत ज्ञान काम करे, उस जातिका वैराग्य हो, उस प्रकारकी आत्माकी महिमा होती है। भक्ति यानी आत्माकी ओर महिमा होती है। आत्मा ही सर्वस्व है। यह सब तुच्छ है, सारभूत हो तो आत्मा ही है। आत्मा ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट महिमावंत