पदार्थ है। ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। ज्ञायक माने मात्र जानना, जानना ऐसे नहीं, उसे ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। उसे शुभभावमें जिनेन्द्रदेव, गुरु जिन्होंने प्राप्त किया है, उन पर महिमा है और अंतरमें ज्ञायकदेवकी महिमा। मुझे शुद्धात्मा कैसे पहचाननेमें आये?
मुमुक्षुः- ज्ञायककी महिमापूर्वक टहेल लगाये तो?
समाधानः- महिमापूर्वक टहेल लगाये, बारंबार। तो उसे चाबी मिले बिना रहती नहीं।
मुमुक्षुः- स्ववश योगीमें और सर्वज्ञ वीतरागमें कभी भी कोई भी भेद नहीं है। हम जडबुद्धि हैं कि उसमें भेद गिनते हैं। स्ववश योगीमें और सर्वज्ञ वीतरागमें कभी भी कोई भी भेद नहीं है।
समाधानः- जो योगी स्ववश अर्थात आत्मामें जिसे द्रव्य पर दृष्टि पर गयी, आत्मा वीतराग स्वरूप है और वीतरागी आत्माको जिसने ग्रहण किया और उस रूप उसकी परिणति हुयी, ऐसे योगी स्वयं स्ववश है। उनमें और वीतरागमें कोई फर्क नहीं है। कभी भी कोई भेद नहीं है। विभावको गौण कर दिया। आत्मामें विभाव कदापि हुआ ही नहीं। ऐसी जिसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी और फिर मुनिओंकी बात करते हैैं, स्ववश योगीको तो साथमें लीनता भी कितनी है। मात्र थोडा संज्वलन है, वह एकदम गौण है। बारंबार एकदम लीनता भी उतनी है और द्रव्यदृष्टिसे देखो तो वीतरागस्वरूप आत्मा है। उसने उसे ग्रहण किया यानी वीतरागस्वरूप आत्माको ग्रहण किया। उनमें और वीतरागमें कोई अंतर नहीं है।
बारंबार लीनता करते हैं। वीतरागीपद जिन्होंने (प्रगट किया है)। जिनेन्द्रदेवको पहचानने हो तो मुनिकी मुद्रा। मुनीकी मुद्रा और वीतरागकी मुद्रामें (कोई अंतर नहीं है)। मुनिके द्वारा वीतराग पहचाननेमें आते हैं। जिन सरिखा कहनेमें आता है। जिनेन्द्र मुनिओंको जिनेन्द्र सरिखा कहनेमें आता है। उसमें कोई भेद नहीं है। वीतरागस्वरूप आत्मा है और वीतरागी पदको साधनेवाले, उग्ररूपसे साधनेवाले मुनिवर हैं। उनमें और वीतरागमें कोई भेद कदापि नहीं दिखता। द्रव्यदृष्टिसे कोई भेद नहीं है और लीनता अपेक्षासे भी भेद नहीं है। वीतरागस्वरूप आत्माको जिसने ग्रहण किया, सम्यग्दर्शनमें आंशिक वीतरागदशा होती है। मुनिओंको उससे विशेष वीतरागदशा होती है। केवलज्ञानी संपूर्ण हैं। लेकिन उसमें कोई अंतर नहीं है। जो मुनि स्ववश हैं, जिनको कोई विभाव असर ही नहीं करते। द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी उसमें असर नहीं है। लीनता अपेक्षासे विशेष असर नहीं करते। उसमें कभी भी कोई भेद दिखाई नहीं देता।
मुमुक्षुः- .. उसमें भेद गिनते हैं।