Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 46.

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ट्रेक-

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ट्रेक-०४६ (audio) (View topics)

समाधानः- ... मैं तो जाननेवाला ज्ञायक हूँ। परद्रव्य स्वतः स्वतंत्र परिणमते हैं। उसके द्रव्य-गुण-पर्याय स्वतंत्र और मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय स्वतंत्र हैं। मैं उसे कहीं बदल नहीं सकता। जो बदल सकता तो कोई बार इच्छा अनुसार होता है और कोई बार इच्छा अनुसार होता भी नहीं है। स्वयंने नक्की किया हो कि ऐसा कर दूँ और बदल दूँ, तो भी नहीं होता। वह तो जैसे होना होता है वैसे ही होता है। उसमें कोई कछ बदल नहीं सकता।

उसे कार्यमें तो अपनी श्रद्धा बदलनी है। अन्दर आकुलता हो, यह क्यों नहीं हुआ, इच्छा अनुसार क्यों नहीं हुआ? परन्तु वह होता ही नहीं है। स्वयंको अन्दर श्रद्धा बदलकर कर्ताबुद्धि अंतरसे छोड देनी कि मैं नहीं कर सकता। वह रह नहीं सकता, रागके कारण सब कार्य हो, स्वयं राग करता है, इसलिये रह नहीं सकता। उसकी श्रद्धा पलट दे कि मैं तो जाननेवाला ज्ञायक उदासीन हूँ। उदासीन ज्ञाता हो जाय। श्रद्धा बदल दे।

मुमुक्षुः- वह उसका चरितार्थपना है।

समाधानः- वह चरितार्थपना। श्रद्धा बदलकर अन्दर उदासीन हो जा। सच्चा उदासीन और सच्चा ज्ञायकपना तो यथार्थ ज्ञायककी परिणति होती है तब होता है। लेकिन उसके पहले उसकी श्रद्धा और भावना कर सकता है। एकत्वबुद्धि वास्तविक टूटी नहीं हो तो भी मैं ज्ञायक हूँ, मैं तो जाननेवाला हूँ। इस प्रकार उसकी भावना, उसकी श्रद्धा, ऐसी प्रतीति बुद्धिपूर्वक भी ऐसा कर सकता है। उसे जो अतिशय राग-द्वेष, एकत्वबुद्धि होती थी उससे भिन्न रह सके। वास्तविक भिन्न तो बादमें होता है। परन्तु पहले इतना वह कर सकता है। उससे उदासीन हो, भिन्न हो, प्रतीत करे। यथार्थ उदीसनता, भिन्नता तो ज्ञायककी परिणति हो तब कहनेमें आता है। परन्तु उसके पहले भी उसकी भावनामें यह सब कर सकता है।

मुमुक्षुः- वास्तवमें तो श्रद्धा ही नहीं पलटी है।

समाधानः- श्रद्धा पलटी नहीं। एकत्वबुद्धि होती रहती है। श्रद्धाको बदलना। पहले तो श्रद्धा पलटनेकी जरूरत है। जो होनेवाला है वह होता रहता है। स्वयं अन्दर राग-