२७४ द्वेषमें जुडता है। दूसरा बाहरका तो कुछ नहीं कर सकता है।
मुमुक्षुः- वही उसका प्रयोग है।
समाधानः- वही उसका प्रयोग है-श्रद्धा बदलनी। मैं कुछ नहीं कर सकता। रागसे छूट नहीं सकता हूँ, इसलिये रागमें जुडता हूँ। बाकी राग-द्वेष भी मेरा स्वभाव नहीं है। लेकिन रागमें जुडता हूँ, इतना मर्यादा आती है। बाकी बाहर जडका तो कुछ नहीं कर सकता। दूसरे चैतन्य और दूसरे पुदगलका कुछ नहीं (कर सकता)। इस शरीरका भी कुछ नहीं कर सकता। किसीका कुछ नहीं कर सकता। व्यापार-धंधेका भी कुछ नहीं कर सकता। बाहरका कोई कार्य मैं नहीं कर सकता हूँ। प्रशस्त भाव और अप्रशस्त भाव जो होते हैं, शुभाशुभ भाव होते हैं, वहाँ तक है, इससे आगे बाहर और कुछ नहीं होता है।
मुमुक्षुः- फिर वहाँसे अन्दर राग और ज्ञान क्या होता है, उसे..
समाधानः- राग और ज्ञानको अन्दर भिन्न करना वह दूर रह जाता है। प्रज्ञाछैनीसे ज्ञान भिन्न, राग भिन्न, ऐसे भेदज्ञान करना बाकी रह जाता है।
मुमुक्षुः- ... बारंबार आडे आता है, इच्छा होगी तो ही आयेगा, नहीं तो कैसे आयेगा? ऐसा निमित्त-नैमित्तिक..
समाधानः- इच्छा होगी तो आयेगा, लेकिन ऐसा क्यों स्वयंको करना पडता है? इच्छा होगी तो आयेगा, उसके लिये मुझे इच्छा करनी पडे, ऐसा है? वह तो अन्दर स्वयंको राग हो तो राग आये बिना रहता नहीं। दूसरा कार्य करनेके लिये राग करना पडे ऐसा नहीं है। राग छूट जाता हो तो दूसरेके कार्यके लिये रागमें खडे रहनेकी आवश्यकता नहीं है। अंतरमेंसे छूटकर वीतराग दशा होती हो तो वहाँ खडे रहनेकी जरूरत नहीं है। लेकिन उसकी भूमिका होती है, अशुभभावमेंसे शुभभावमें आनेकी। उसकी अमुक भूमिका होती है।
शुभाशुभ भावोंसे भेदज्ञान करना। दूसरोंके लिये कहीं इच्छा करनेकी जरूरत नहीं है। सब विवेक करना पडता है। मैं दूसरेका कुछ नहीं कर सकता हूँ। लेकिन उसमें अशुभसे बचनेके लिये शुभभाव आये, वहाँ ऐसा कहे कि मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ, मैं कुछ नहीं कर सकता, श्रद्धा बराबर है कि बाहरका कुछ (नहीं कर सकता)। शुभभावमें भी बाहरका जो होनेवाला है वह नहीं कर सकता। लेकिन शुभभाव तो स्वयंको आये बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- वह विवेक स्वयंको करना है।
समाधानः- वह विवेक स्वयंको होना चाहिये न।
मुमुक्षुः- अशुभ है या शुभ है, ऐसे..