Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

२७६ है, सुख बाहरमें कहीं नहीं है। बाहरमें सब कायामें, अन्दर विकल्पमें हर जगह दुःख है। प्रत्येक कायामें। अन्दर विकल्पमें दुःख ही है। आकुलतासे भरा यह संसार है। दुःख है। अपना स्वभाव एक ही सुखरूप है। इसलिये सुखरूप स्वभावको ग्रहण करके जाननेवाला आत्मामें आनन्द, सुख सब भरपूर उसमें ही भरा है। उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। बाहरका करने जाता है, वह कुछ नहीं कर सकता। वह तो पुण्य-पापके उदय अनुसार होता है। सर्व द्रव्योंका परिणमन स्वतंत्र है। स्वयं कुछ नहीं कर सकता है, मात्र अभिमान करता है कि यह सब मैंने किया। किसीका अच्छा या जो भी हो, अच्छा-बुरा सब कुछ उसके पुण्य-पापके उदय अनुसार होता है, स्वयं कुछ नहीं कर सकता। स्वयं राग-द्वेष करता है। इसलिये अन्दर उस विकल्पसे भी आत्मा भिन्न है, उसका स्वभाव भिन्न है, उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। रुचि पलटनी। .. मैंने किया, मैंने किया मात्र अभिमान करता है। परद्रव्यका कर्ता नहीं है, कोई द्रव्यको कोई बदल नहीं सकता। अपने परिणामोंको स्वयं बदल सकता है।

... निर्लेप रहता है। कीचडमें और पानीमें कमल निर्लेप ही रहता है। मुमुक्षुः- झेरना उपयोगथी वैद्यजन मरतो नथी, कर्मोदये ज्ञानी बंधातो नथी। ज्ञानी बँधते नहीं उसका कारण?

समाधानः- जहरके उपयोगसे वैद्य मरता नहीं। वैद्यने जहरमें जो नुकसान करनेवाला है उसे निकाल दिया है। वैसे आत्मामें भी स्वयंने एकत्वबुद्धिको तोड दी है। भिन्न ही रहता है। बाहरके कायामें जुडने पर भी, बाहरमें जुडने पर भी वह न्यारा ही है। विकल्प आये उस विकल्पसे भी न्यारा रहता है, इसलिये वह बँधता नहीं। अन्दर स्वयं वर्तमानमें ही भिन्न रहता है। अपनी परिणति एकत्वबुद्धि होकर वर्तमानमें बँधती नहीं है, इसलिये वह बँधता ही नहीं। इसलिये द्रव्यकर्म भी उस प्रकार नहीं बँधते। अपनी परिणति ही बँधती नहीं। परिणति एकत्वरूपसे जुडती ही नहीं। वर्तमान भिन्न ही भिन्न रहता है। वर्तमानमें बँधता ही नहीं। जो उदय आते हैं उससे भिन्न ही भिन्न रहता है। जुदा ही जुदा रहता है।

द्रव्यदृष्टिसे मेरा ज्ञायक स्वभाव भिन्न ही है। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। शरीर तो मैं नहीं, बाहरके कायासे, शरीरसे सबसे मैं भिन्न हूँ और अन्दर विभाव परिणामसे भी मैं भिन्न हूँ। ऐसे न्यारा ही न्यारा रहता है, इसलिये वह स्वयं अन्दरसे बँधता ही नहीं, विरक्त रहता है। न्यारा रहता है, इसलिये कर्मसे बँधता नहीं। द्रव्यकर्म भी नहीं बँधते। भावकर्म नहीं बँधते हैं, इसलिये द्रव्यकर्म नहीं बँधते। अन्दरसे न्यारा ही न्यारा, भिन्न ही भिन्न स्वयं रहता है। अनादिसे भिन्न है, लेकिन प्रगटरूपसे भिन्न हो गया है। अल्प अस्थिरता होती है उसे गौण कर दी है। वह अस्थिरता ऐसी है कि वह लम्बे