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समय टिकनेवाली नहीं है। अन्दरसे न्यारा ही न्यारा, भिन्न ही भिन्न रहता है। हर समय। जागते, सोते, स्वप्नमें सबमें वह न्यारा ही न्यारा, ज्ञायक ही रहता है। ऐसी ज्ञान- वैराग्यकी शक्ति उसे प्रगट हुई है।
ज्ञान-वैराग्य शक्ति। ज्ञान-वैराग्यकी ऐसी अदभुत शक्ति प्रगट हुयी है कि उसे लेप ही नहीं लगता। अंतरमें ऐसी कोई उसे शक्ति प्रगट हुयी है। सब प्रकारसे वह भिन्न हो गया है। उसका आदर ही नहीं करता। किसी भी प्रकारसे यह विभाव आदरणीय नहीं है, यह संसार आदरणीय नहीं है, मन-वचन-कायासे, किसी भी प्रकारसे आदरणीय नहीं है। सब प्रकारसे अन्दर भिन्न हो गया है। द्रव्यदृष्टिसे उसकी श्रद्धामें, सब प्रकारसे भिन्न हो गया है, इसलिये वह बँधता नहीं। ऐसी उसकी परिणति ही हो गयी है। मात्र विकल्परूप नहीं या निर्णय करके निर्णय एक ओर पडा रहा है, ऐसा नहीं। उसकी परिणति ही न्यारी रहती है, न्यारी परिणति (हो गयी है)। इसलिये वह बँधता नहीं।
उसे ऐसा होता है कि यह कुछ आदरणीय नहीं है। कब ऐसी वैराग्यकी परिणति हो कि यह सब छूटकर मैं मेरे स्वरूपमें लीन हो जाऊँ और पूर्ण लीन हो जाऊँ। कब मुनि बनुँ, कब यह सब छूट जाय, ऐसा भावना उसे वर्तती है। अन्दरसे भिन्न रहता है। गृहस्थाश्रममें होने पर भी स्वानुभूतिमें लीन होता है। बाहर आये तो भिन्न ही भिन्न रहता है।
आता है न? वृक्षका मूल काटनेके बाद वह वृक्ष पनपता ही नहीं। उसका मूल कट गया है। सुखबुद्धि ही बन्धनका कारण है। जहाँ देखो वहाँ एकत्वबुद्धि। उसने बुद्धिमें निर्णय किया हो कि मैं भिन्न हूँ, तो भी उसकी परिणतिमें हर वक्त एकत्वबुद्धि ही हो रही है। सब परिणतिमें एकत्वबुद्धि (होती है)। उससे भिन्न, उसी क्षण भिन्न भासना चाहिये, उसी क्षण भिन्न नहीं भासता। विचार करे कि मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ। लेकिन जिस क्षण परिणति होती है, उसी क्षण वह भिन्न नहीं रहता है।
और ज्ञानीकी परिणति सहज ऐसी है कि जिस क्षण विकल्प आता है, उसी क्षण वह भिन्न रहता है। फिर उसे विचार नहीं करना पडता कि मैं भिन्न हूँ, मैं भिन्न हूँ। ऐसा विचार नहीं करना पडता। जिस क्षण विकल्प आता है, उसी क्षण वह भिन्न रहता है। शुभाशुभ प्रत्येक भावमें जिस क्षण विकल्प होता है, उसी क्षण (भिन्न रहता है)।