२७८
समाधानः- .. मनफूलाबहन है न? आश्रममें सब जगह तोरण बाँधे थे। एक मनफूला है और दूसरे पर्णफूला है। गोगीदेवीके नामसे था न। ... कौन जाने क्या हुआ? कुछ याद नहीं है। तोरण बाँधे थे। सब कमरेमें आमके तोरण बाँधे थे। यहाँ हमारे घर आमके तोरण बाँधे थे। कुछ नया ही लगता था।
"मारे आंगणिये रूडा राम रमे...' अन्यमतमें एक गाना आता है न? मेरे आंगनमें चारों ओर भगवान दिखते हैं। वैसे यहाँ गाना गाते थे, "मारे आंगणिये रूडा राम रमे...' (चारों ओर) भगवान दिखते हैं, ऐसा लगता था। यहाँ है न? भगवान दिखते हैं न? चारों ओर मानस्तंभ। जहाँ देखो वहाँ भगवान दिखते हैं, ऐसा होते थे। ऐसे गुरुदेवके सान्निध्यमें आश्रममें रहना वह तो कितना मुश्किल। बहुत जगह आश्रम होेंगे, परंतु ऐसे गुरुदेवकी वाणी मिलती हो, ऐसे आश्रम तो मिलने मुश्किल है।
.. ध्येय रखना। जीवनमें एक ध्येय रखना। ध्येय-आत्मा कैसे पहचानमें आये? ज्ञायक आत्मा। जीवनमें जो निर्णय किया है, उस निर्णयकी दृढतासे आगे बढना। अन्दर पुरुषार्थ हो वह पुरुषार्थ करना, भेदज्ञानका अभ्यास करना। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी आराधना और अन्दर ज्ञायकदेवकी आराधना और महिमा। बस! बाकी सब विभावभावोंको गौण कर देना और ज्ञायकदेवको मुख्य करके जीवन व्यतीत हो। बस! यह एकी ध्येय। इसी ध्येयकी दृढता। जो नक्की किया कि इस प्रकार जीवन व्यतीत करना है। उसी ध्येयकी दृढतासे आगे बढना है।
शास्त्र स्वाध्याय, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और अन्दर शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? मैं तो बहुत बार यह एक ही कहती हूँ और यह एक ही करना है। एक आत्माको पहचाने, बस, उसमें सब आ जाता है। उसे पहचाननेकी भावनामें यह सब कार्य- देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें रहकर उनकी आराधना और आत्माकी आराधाना, बस! यह करनेका है।
लौकिकके जीवन देखो तो कैसे जाते हैं। यह जीवन, यह जीवन जो आत्माके लिये व्यतीत किया वह जीवन ही जीवन है। बाकीके जीवन, सब संसारके जीवन व्यर्थ है। लौकिक जीवनमें पूरा दिना खाना, पीना, यह, वह, व्यवहार रखो, यह रखो, वह