रखो, ऐसा जीवन वह जीवन नहीं है। इस मनुष्य जीवनमें आकर ज्ञायकका ध्येय और देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य मिले, उसमें ही जीवन व्यतीत हो वही जीवन है। बाकी तो सब जीवन निष्फल जीवन, सूखा जीवन है, सब तुच्छ जीवन है। वह जीवन आदरने योग्य नहीं है। एक शुद्धात्मा आदरने योग्य है। वह सब जीवन व्यर्थ है। जिस जीवनमें कुछ किया नहीं, शुद्धात्माका ध्येय रखा नहीं, आराधना की नहीं, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा नहीं की, वह जीवन व्यर्थ है।
वह आता है न? यह गृहस्थाश्रम किस कामका कि जिस गृहस्थाश्रममें गुरुके पावन चरण नहीं है, जिसमें गुरुका आहारदान नहीं है, जिसमें जिनेन्द्रदेवके दर्शन नहीं है, जिसमें शास्त्रका स्वाध्याय नहीं है, उस गृहस्थाश्रमको आचार्यदेव कहते हैं, पानीमें डूबो देना। गृहस्थोंको ऐसा कहते हैं। वह गृहस्थाश्रम तो आदरणीय है ही नहीं, यह आत्मा आदरणीय है। देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य आदरणीय है, शुद्धात्माके ध्येयपूर्वक। अन्दर मुख्य तो आत्मा आराधनीय है। उसके साथ देव-गुरु-शास्त्रकी आराधना।
मुमुक्षुः- आपके आश्रयसे हमारा जीवन सफल हो, वही भावना।
समाधानः- ... यह सब यहाँ आते हैं, क्या करना? .. कर्ताबुद्धि, एकत्वबुद्धि टूट गयी और ज्ञाताधारा प्रगट हो गयी। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा विकल्पसे निर्णय करता है वह अलग, ज्ञानीको सहज रहता है। ज्ञाताधारा चालु ही है। दो धारा साथमें चलती है। फिर विचार नहीं करना पडता कि यह विकल्प आ गया, मैं तो ज्ञायक हूँ। यह एकत्व हो गया, ऐसा विचार नहीं करना पडता। विकल्पकी धारा और ज्ञाताकी धारा दो धारा साथमें चलती है। शुभाशुभ कोई भी विकल्प हो, ऊँचेसे ऊँचा विकल्प हो, तो भी उसकी दोनों धारा चालू है, प्रतिक्षण चालू है। देव-गुरु-शास्त्रके शुभ विकल्प हो तो भी उसे ज्ञाताधार तो चालू ही है। उसमें एकत्व नहीं होता। उसे बहुत भाव आये, बहुत भक्ति आये इसलिये उसकी धारा टूट जाय और एकत्व हो जाय, ऐसा उसे नहीं होता। उसकी ज्ञाताधारा तो चालू ही रहती है। भाव आये, उत्साह आये, चाहे जैसे शुभ विकल्प हो तो भी उसकी ज्ञाताधारा तो चालू ही है।
मुमुक्षुः- शुद्ध परिणतिके अनुकूल ऐसा शुभराग आने पर भी उसमें एकत्व होता नहीं।
समाधानः- एकत्व नहीं होता। कर्तृत्व तो ही छूटेगा, ज्ञायकका बल बढनेसे। मैं तो ज्ञायक हूँ, उदासीन ज्ञायक, बस। किसीका कुछ नहीं कर सकता, मैं तो ज्ञायक हूँ। जुड जाता हूँ, लेकिन मैं ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो जाननेवाला हूँ। ज्ञाता रहनेका, ज्ञायक स्वभावकी जिसे दृढता हो कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ, ऐसे