Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

२८ पर्यंत अभ्यास करे तो भी नहीं होता, तो उसके प्रयत्नकी क्षति है। उसका अभ्यास करता रहे, उसमें थकान नहीं लगे, उसके पीछे लगे, लम्बे समयसे करते हैं फिर भी क्यों नहीं होता है? नहीं होता है, उसका कारण स्वयंके प्रयत्नके क्षति है।

ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, उसकी महिमा, उसकी रुचि, ज्ञायकका लक्षण बारंबार पहचानकर लक्षण परसे लक्ष्य (पहचाने)। गुण और गुणी दोनों अभेद है, ज्ञायकका बारंबार अभ्यास करता रहे। ज्ञायकदेव महिमावंत है, ज्ञायकदेवकी महिमा उसे छूटे नहीं। बारंबार जीवनमें ऐसी परिणति दृढ होवे, जीवन उस रूप हो जाये तो प्रतिक्षण उसे ज्ञायक ही लगे, ऐसा अभ्यास दृढ हो तो अन्दरसे प्रगट होता है। प्रयत्नकी क्षति है।

गुरुदेव कहते थे न? "निज नयननी आळसे निरख्या नहि हरि'। स्वयंके प्रमादके कारण आलसके कारण। प्रयत्न करे तो भी उसे प्रमाद रह जाता है, तो भी क्षति रह जाती है। प्रतिक्षण जो विकल्प सहज आ जाते हैं तो उसी क्षण मैं भिन्न हूँ, उसप्रकारकी परिणतिका अभ्यास होना चाहिये, तो होता है। और तो उसे वह दृढता होते-होते विकल्प छूटकर स्वानुभूति होनेका प्रसंग बने। बारंबार उसका अभ्यास, दृढता होनी चाहिये। उसमें थकना नहीं, बारंबार अभ्यास करता रहे तो स्वयं ही ज्ञायक है, वह प्रगट हुए बिना रहे नहीं। उसका अभ्यास करता रहे, जबतक नहीं हो तबतक।

मुमुक्षुः- कई बार आभासमें ऐसा लगता है कि वस्तुमें पकडमे आ जायेगी। पुनः चली जाती है।

समाधानः- उसके समीप जाये, बार-बार करे। उसे ऐसा लगे कि अब पकडमें आ जायेगा, उतना जोर आये, लेकिन वह टिकता नहीं, इसलिये (छूट जाता है ऐसा लगे)। पुरुषार्थकी गतिमें फेरफार होता रहता है। कभी तीव्र पुरुषार्थ चले, कभी मन्द पड जाये, कभी मध्यम हो जाये। पुरुषार्थकी गतिमें फेरफार होनेसे ऐसा लगे कि पकडमें आ जायेगा, फिर मन्द पडे, फिर मध्यम पडे। लेकिन इसीप्रकार उसका प्रयत्न करते रहनेसे वह पकडमें आये बिना रहता नहीं। स्वयं ही, दूसरा नहीं है।

मुमुक्षुः- उसे छोडना नहीं।

समाधानः- हाँ, उसे छोडना ही नहीं। क्यों नहीं होता? ऐसी उलझनमें नहीं आना, धैर्य रखना। धैर्य रखनेसे पकडमेें आये बिना नहीं रहता। उसकी महिमा छूटे नहीं, उसमें शुष्कता आये नहीं। उसकी महिमा और उसमें ही आनन्द, उसमें ही सुख, सब सर्वस्व उसमें है। अनादिकालके जो जन्म-मरण है और ये विभावका जो दुःख है, उस विभावके दुःखसे छूटने हेतु ज्ञायक सर्वस्व है, उस ज्ञायकमें ही सब आनन्द और सुख है। बाहर कहीं नहीं है। ऐसी प्रतीति, ज्ञायकदेवकी महिमा, अभ्यास करनेमें थकना नहीं, शुष्कता आये नहीं, उसकी महिमा छूटे नहीं तो आगे बढे बिना रहे