Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

२९६ गुरुदेवको क्रमबद्धमें ऐसा नहीं कहना था। उनका कर्ताबुद्धि छुडानेका अभिप्राय था। तू ज्ञायक हो जा, ऐसा कहना था।

तू परद्रव्यका कुछ बदल नहीं सकता। तू कर्ताबुद्धि छोड दे, ज्ञायक हो जा, ऐसा कहना था। सहज परिणति तेरी अपनी प्रगट कर ले। कर्तृत्वबुद्धि छोड दे, ऐसा कहना था। क्रमबद्धको पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। अकेला क्रमबद्ध नहीं होता। उसमें स्वभाव, काल इत्यादि सब साथमें है। अकेला क्रमबद्ध नहीं होता। पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध रखता है। जैसा जिसका पुरुषार्थ वैसा उसका क्रमबद्ध। पुरुषार्थकी गति कैसी है? स्वयं पुरुषार्थ करनेवालेको मैं करुँ, ऐसा आता है। जैसा होना होगा वैसा होगा। ऐसा उसे संतोष ही नहीं होता। जिसे आत्माकी लगी है, उसमें वह संतोष मान ही नहीं सकता। जिसे आत्माकी लगी हो, वह ऐसा नहीं मानता है कि क्रमबद्ध होगा तो कैसे होगा? उसे संतोष ही नहीं होता।

आत्मार्थीको अन्दरसे ऐसा होता है कि मैं करुँ, कैसे समझु? कैसे ज्ञायक पहचानमें आये? ऐसी ही भावना उसे होती रहे। क्रमबद्धके सामने देखता ही नहीं। मेरी ऐसी भावना है तो मेरा क्रमबद्ध सुलटा ही है। मोक्षकी ओरका है। ऐसी ही उसे श्रद्धा होती है। क्रमबद्धसे स्वयंको संतोष ही नहीं होता।

मुमुक्षुः- उसे ऐसा होता है कि अभी कर लूँ, जल्दी हो जाय तो करुँ, अभी होता हो तो मुझे थोडी भी राह नहीं देखनी है, ऐसी भावना होती है।

समाधानः- ऐसी भावना अन्दर होनी चाहिये। फिर होवे कितना वह दूसरी बात है, लेकिन भावना ऐसी होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- गुरुदेव सौ जहाजका दृष्टांत देते थे। सेठने सुना, सौ जहाज आते थे, उसमेंसे ९९ डूब गये हैं, एक बचा है। वह मेरा ही होगा। उतनी पुण्यमें श्रद्धा।

समाधानः- यहाँ तो पुरुषार्थ है। मुझे आत्मा प्राप्त हुए बिना संतोष नहीं है। ऐसा जिसे हो, उसे ऐसा ही होता है कि मेरा क्रमबद्ध तो मोक्षकी ओर, आत्माकी ओरका है।

बाहरके उदय जैसे होने होते हैं, वैसे होते हैं। उसे स्वयं बदल नहीं सकता। अंतरकी ज्ञायकदशा प्रगट करनी वह अपने पुरुषार्थकी बात है। ज्ञायकदशा, उसकी ज्ञाताधारा होती है। इसलिये विभावकी परिणति अन्दर है उसे उदय कहते हैं, उदयधारा। उसकी कर्ताबुद्धि छूट गयी इसलिये उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि वह स्वतः होती है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है। उसे अन्दर ज्ञान है। जैसे होना होगा वैसा होगा, ऐसे ज्ञानीकी ज्ञाताधारामें ऐसा नहीं है। अंतरमेंसे कोई अचिंत्य ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति प्रगट हुयी है। इसलिये पुरुषार्थ बिनाका क्रमबद्ध वहाँ भी नहीं लिया जाता। विभावधारामें भी। उसके पुरुषार्थकी मन्दता