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मुमुक्षुः- .. वह तो समझमें आता है, परन्तु द्रव्यको अर्पित हो जाना, वह कैसे करना?
समाधानः- द्रव्यको अर्पित हो जाना, द्रव्यको बराबर पहचाने कि मैं चैतन्य शाश्वत अनादि ज्ञायक द्रव्य हूँ। ज्ञायकका स्वरूप पहचाने और ज्ञायककी महिमा आये तो उसे अर्पित हुआ जाता है।
जैसे जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्रकी महिमा आनेसे वहाँ अर्पणता होती है। जिनेन्द्र देव जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं, गुरु कि जो आत्माकी बारंबार साधना कर रहे हैं और वाणी बरसाते हैं, ऐसा गुरु और शास्त्र मार्ग बताता है। ऐसी जो उनकी महिमा आती है, वैसे यदि आत्माकी महिमा आये तो उसमें भी अर्पित हुआ जाता है।
जिनेन्द्रदेव, जिन्होंने सर्वोत्कृष्ट आत्मा, अपनी पर्याय चैतन्यदेवकी पूर्णता प्राप्त की है। ऐसे जिनेन्द्र देवकी जैसे महिमा आती है, गुरुकी, शास्त्रकी, ऐसे चैतन्यको पहचाने तो चैतन्यकी भी महिमा आती है। ज्ञायक कैसा है? कि अनन्त गुणोंसे भरपूर अनुपम तत्त्व और आश्चर्यकारी तत्त्व है। वह तत्त्व अनादिअनन्त है। चाहे जितने भव किये तो भी आत्माको कुछ एक अंश भी, थोडा भी विभावका अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है या मलिनता नहीं हुयी है।
ऐसा शाश्वत आत्मा जो कोई अदभुत आश्चर्यकारी है, कोई उसका नाश नहीं कर सकता। कोई उसे उत्पन्न नहीं कर सकता। अनादिअनन्त शाश्वत ऐसा अनुपम आश्चर्यकारी अनन्त गुणोंसे भरपूर (है) कि जो स्वानुभूतिमें उसकी अनुभूतिमें पकडमें आता है। और ज्ञानसे उसके लक्षण द्वारा पहचाना जाता है। आत्मा कैसा अनुपम तत्त्व है, वह उसके ज्ञानलक्षणसे पहचानमें आता है। उसकी यदि महिमा आये कि आत्मा ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट है, तो उसे भी अर्पित हुआ जाता है। बस, इस ज्ञायकदेवके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिये। इस जगतमें जो कुछ है वह कुछ भी सारभूत नहीं है, तुच्छ है।
यह ज्ञायकदेव ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट है। ज्ञायकदेवकी महिमा आये तो उसकी भी अर्पणता हो जाय। मेरे ज्ञायकको कैसे पहचानूँ? उसे निरखता रहूँ, उसे अर्पण हो जाऊँ, उसकी महिमा करुँ, उसकी पूजन करुँ। महिमा आये तो ज्ञायकदेवको भी अर्पण हुआ