३४ करनी है, इस देवकी भक्ति करनी, गुरुकी भक्ति करनी है। इसप्रकार परीक्षा करके नक्की करके फिर उनका स्तवन करे, गुणग्राम करे, गुरु क्या कहते हैं, उनका आशय समझनेका प्रयत्न करे।
वैसे यह ज्ञायक ही है, ऐसा लक्षणसे पहचानकर नक्की करे। फिर उसकी भक्ति और उसकी स्तुति, ज्ञायकके पीछे लगे तो प्रगट हुए बिना रहे नहीं। वह भक्तिमार्ग है। ज्ञायककी भक्ति अन्दर साथमें आनी चाहिये। देव-गुरु-शास्त्रकी भक्तिके साथ ज्ञायककी भक्ति आनी चाहिये, परन्तु लक्षणको पहचानकर। लक्षण पहचानना चाहिये कि यह ज्ञायक ही है। यह लक्षण ज्ञायकका है, दूसरेका नहीं है, ऐसा आये तो उसे ज्ञायककी भक्ति कहते हैं। लक्षणको पहचानकर होनी चाहिये।
समझनपूर्वककी भक्ति होनी चाहिये, ज्ञानपूर्वक भक्ति होनी चाहिये। समझे बिना ऐसे ही बाहरसे भक्ति करता रहे ऐसे नहीं। ज्ञायककी भक्ति साथमें आनी चाहिये, गुरुकी भक्तिके साथ। गुरुकी भक्ति किसे कहें? देव और गुरुकी। कि ज्ञायककी भक्ति साथमें आये तो वह भक्ति है।
मुमुक्षुः- बाह्य भक्ति।
समाधानः- मात्र बाह्य नहीं।
मुमुक्षुः- माताजी! ज्ञानीको जब शुभराग आता है उसमें तो उसे खटक लगती है। बराबर है? तो जब वह शुभरागमें जुडता है तब उत्साहपूर्वक जुडता है कि दुःखपूर्वक जुडता है?
समाधानः- जिस वक्त वह जुडता है उस समय उसे भेदज्ञान वर्तता है। मेरे पुरुषार्थकी कमजोरीके कारण जुडना होता है, अन्दर लीनता नहीं होती है इसलिये शुभरागमें जुडता है। लेकिन जिस समय शुभराग उठता है, उस समय ऐसा विकल्प नहीं करता है कि यह शुभराग है, शुभराग है। ऐसे नहीं होता। सहज शुभराग आता है और उसे भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। ज्ञायक भिन्न ही रहता है और शुभरागमें ऐसे तन्मय नहीं हो जाता कि वह ज्ञायकको भूल जाये। ज्ञायक भिन्न रहकर उसे शुभराग आता है कि मैं तो भिन्न ही हूँ। यह शुभराग है। ये तो विभावकी ओरका भाग है, मेरा ज्ञायकका भाग, मेरे स्वघरका भाग भिन्न है और यह शुभरागका भाग है वह भाग विभावका घर है। वह भिन्न है। ऐसा ज्ञान बराबर है। उससे भिन्न रहकर शुभराग (आता है)। उसमें एकत्व नहीं होता, उसमें आकूल-व्याकूल नहीं होता।
उसका बहुत उत्साह दिखाई दे। दूसरेसे उसका उत्साह अधिक दिखाई दे, उसकी भावना वैसी दिखती है, लेकिन वह भिन्न ही रहता है। उसमें वैसे एकत्व तन्मय नहीं हो जाता कि स्वयंको भूल जाये। ऐसे भिन्न रहता है। बार-बार विकल्प नहीं करता