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समाधानः- बाहर किसीको नहीं कहते थे।
मुमुक्षुः- सुख चाहिये, तो चैतन्यकी मूल ऋद्धि सुख है या ज्ञान है? पूर्ण ज्ञान बिना पूर्ण सुख होता नहीं। तो सुखके लिये ज्ञानका आधार है?
समाधानः- जीव सुखको चाहता है। परन्तु सुखके लिये प्रयोजनभूत ज्ञानकी आवश्यकता है। ज्ञानकी ऋद्धि, ज्ञानगुण मुख्य आत्माका है। परन्तु ऋद्धिके लिये प्रयत्न नहीं करना है। जीव सुखको चाहता है। अधिक जानना, लोकालोक प्रत्यक्ष जाननेमें आये, ऐसी ऋद्धिके लिये प्रयत्न नहीं करना है। ज्ञानगुण मुख्य है और जीवका सुखगुण भी विशेष गुण है। तो भी ज्ञान मुख्य होने पर भी ऋद्धिके लिये प्रयत्न करनेका मोक्षमार्गमें नहीं होता।
आत्माको अन्दर चैन नहीं पडती, उसे दुःख होता है, इसलिये सुखके लिये प्रयत्न चलता है। ज्ञानके लिये प्रयत्न नहीं होता, परन्तु मुख्य प्रयोजनभूत जो तत्त्व है उसे जाने। मैं कौन हूँ? यह विभाव क्या है? प्रयोजनभूत जाने तो फिर उसमें ज्यादा जाननेकी आवश्यकता नहीं है। जाननेकी आवश्यकता नहीं है, परन्तु शास्त्रमें आता है, पहले वीतरागता होती है, फिर सर्वज्ञता होती है। पूर्ण ज्ञान होनेके बाद पूर्ण सुख होता है, ऐसा नहीं है। पहले वीतरागता हो, फिर ज्ञान होता है। मुख्य पुरुषार्थ करना है, वह ज्ञायकको पहचानकर वीतरागता प्रगट करनेका है। श्रद्धाके साथ वीतरागता प्रगट करनी है। ज्ञानके लिये प्रयत्न नहीं करना है। ज्यादा जाननेके लिये, ऋद्धिके लिये प्रयत्न नहीं करना होता है।
शास्त्रमें आता है, श्रीमद कहते हैं, जिसे जैनका केवलज्ञान भी नहीं चाहिये, उसे प्रभु कौनसा पद देंगे? इसलिये केवलज्ञानके लिये प्रयत्न नहीं करना होता है। एक ज्ञायकको पहचानकर दृष्टि एक आत्मा पर रखकर, मति-श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल, उसे वृद्धिगत करनेकी आवश्यकता नहीं है। वह तो बीचमें लीनता नहीं हो तबतक साधकदशा होती है, तबतक मति-श्रुत बीचमें आता है। केवलज्ञान प्रगट करुँ, अवधिज्ञान प्रगट करुँ, मनःपर्ययज्ञान, मति-श्रुत और केवलज्ञान प्रगट करुँ, केवलज्ञान प्रगट करनेका कोई प्रयत्न नहीं होता है। उस पर-केवलज्ञान पर दृष्टि नहीं होती।
अन्दर स्वरूपमें श्रद्धाके साथ लीनता हो, वीतरागता हो तो सहज ज्ञान प्रगट होता है। ऋद्धि पर दृष्टि होती ही नहीं। बाह्यकी सब ऋद्धि तो, "रजकण के ऋद्धि वैमानिक देवनी, सर्वे मान्या पुदगल एक स्वभाव जो।' और अन्दरकी चैतन्य ऋद्धि ज्ञानमें जाने कि आत्मामें कोई अलौकिक ज्ञान ऋद्धि है, अनुपम आनन्द है, अनन्त शक्तियाँ है। परन्तु साधनामें ऐसे रागके विकल्प या ऐसी लालसाके विकल्प नहीं होते। उसे अंतरमेंसे एक शांति चाहिये। शांति कैसे प्रगट हो? बस। मुझे आत्मामेंसे-स्वभावमेंसे, मेरा स्वभाव क्या है, ऐसे तत्त्वको पहचानकर मुझे स्वभावमेंसे शांति, वीतरागता, मेरा ज्ञान, मेरा