Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

३४८ ज्ञायकदेव मुझे कैसे प्रगट हो? ऐसी उसकी भावना होती है। उसे अनंत शक्तियोंके विकल्प और कैसे ज्यादा जानूँ, उस प्रकारका प्रयत्न साधकदशामें नहीं होता है। एक आत्माको जाने इसलिये सब आ जाता है। उसमें उसे बाहर ज्यादा जाननेकी जरूरत नहीं पडती।

मुमुक्षुः- सुखके लिये वीतरागता..?

समाधानः- हाँ, सुखके लिये वीतरागता। प्रयोजनभूत ज्ञान पहले होता है। पहले आत्माको जाने। प्रयोजनभूत ज्ञान होता है। फिर उसमें सुखके लिये वीतरागताकी जरूरत है, ज्ञानकी जरूरत नहीं है। जो वीतराग हो, उसमें संपूर्ण शांति, आनन्द, सुख सब उसीमें-वीतरागतामें ही है। प्रयोजनभूत ज्ञान होता है। ज्ञानगुण आत्माका है, वह तो सहज प्रगट हो जाता है। वीतरागता हो इसलिये ज्ञान सहज प्रगट होता है। ज्ञान स्वको जाने और (परको भी जाने)। स्वपरप्रकाशक ज्ञान सहज प्रगट होता है। उसे प्रगट करने नहीं जाना पडता।

दृष्टिको अवल्मबन एक ज्ञायकका होता है। उसकी दृष्टि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानके भेदमें नहीं रुकती। ज्ञानमें जाने कि, यह मति, श्रुत, अवधि क्षयोपशमज्ञानके भेद, क्षायिकके भेद (जाने), लेकिन उसमें वह रुकता नहीं। दृष्टिमें किसी भी प्रकारका भेद नहीं होता। संपूर्ण वीतराग होता है, वह संपूर्ण सर्वज्ञ होता है।

मुमुक्षुः- हे भगवती माताजी! सम्यकज्ञानीको निरंतर ज्ञानधारा होती है। उपयोग बाहरमें हो तब भी भेदज्ञानकी धारा चालू है, वह कैसे संभवित है? यह कृपा करके हमें समझाइये।

समाधानः- उपयोग बाहर हो तो भी ज्ञानकी धारा-ज्ञानकी परिणति रहती है। उपयोग बाहर हो और परिणति ज्ञायककी हो, उसमें कोई विरोध नहीं है। ज्ञायककी धारा अन्दर चलती हो। एकत्वबुद्धि टूट गयी है और भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। ज्ञायककी ज्ञायकरूप धारा प्रतिक्षण जो-जो विकल्प आये, विभावकी पर्याय हो, तो उसमें उसे भेदज्ञानकी धारा (चलती ही रहती है)। स्वयं भिन्न ही भिन्न, न्यारा ही न्यारा रहता है। दृष्टि एक ज्ञायक पर है, परिणति ज्ञायककी है। प्रतिक्षण वह भिन्न ही भिन्न, प्रत्येक कार्यमें वह न्यारा ही न्यारा रहता है।

खाते-पीते, सोते, स्वप्नमें सबमें वह न्यारा ही न्यारा रहता है। ऐसी ज्ञायककी परिणति रहती है। उपयोग भले बाहर हो, बाहरके कायामें हो। बाहर गया और बाहरका जाने तो अन्दर खण्ड-खण्ड हो जाता है, ऐसा नहीं है। वह तो अखण्ड ज्ञायक है। क्षयोपशमज्ञानके कारण उसका जो मूल स्वभाव ज्ञायक परिणति है, उसमें कोई खण्ड नहीं होता। ज्ञायककी परिणति हर वक्त मौजूद होती है।