३५६
समाधानः- .. तू देख, उसके लिये प्रयास कर, भेदज्ञानका अभ्यास कर। छः महिने तक अभ्यास कर। फिर होता है कि नहीं, तू देख। ऐसा शास्त्रमें आता है। आचार्यदेव कहते हैं, अरे..! भाई! तू देख। पडोसी होकर देख। अन्दर ज्ञायकदेव विराजता है। यह शरीर भिन्न, यह विभावस्वभाव तेरा नहीं है। तू उससे भिन्न (है)। यह शुभाशुभ भाव सब आकुलतारूप (है), उससे तू भिन्न है। ज्ञायककी श्रद्धा कर, उसमें लीनता कर, उसकी प्रतीति कर तो अंतरमें होता है कि नहीं तू देख।
जो अनादिका एकत्वताका अभ्यास है, स्वमें एकत्व और परसे विभक्त ऐसी श्रद्धा करके परिणति प्रगट कर तो फिर होता है कि नहीं तू देख। तू प्रसन्न हो। पुरुषार्थ कर तो हे सके ऐसा है। न हो ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- आचार्यदेव कहते हैं कि एकबार तू कुतूहल कर।
समाधानः- कुतूहल कर, उसमें आश्चर्य कर, तू देख अन्दर होता है या नहीं। तो तुझे हुए बिना रहेगा नहीं। तू स्वयं ही है। दूसरा कोई नहीं है कि वह स्वयंको गुप्त रखे। तू स्वयं ही है। अनन्त शक्तियोंसे (भरपूर) अनंत महिमावंत आत्मा तू ही है। उसे तू पहचान और उसका पुरुषार्थ कर। सावधान होकर पुरुषार्थ करके तू देख तो हुए बिना रहेगा नहीं।
काल कोई भी हो, काल उसे बाधा नहीं करता। आगे प्राप्त किया, निगोदमेंसे निकलकर ... भरतके घर पुत्र हुए और थोडी देरमें भगवानका उपदेश सुना और सम्यग्दर्शन एवं मुनिदशा आ गयी। तो आत्मा करे तो क्षणमात्रमें हो सके ऐसा है। एक अंतर्मुहूर्तमें भी हो सकता है। और अभ्यास करे तो लंबे समयके बाद हो सकता है। आचार्यदेव उग्र पुरुषार्थ करे उसे छः महिनेमें तू देख होता है या नहीं, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। ऐसा तू उग्र पुरुषार्थ कर। तू बाहरमें पडा है, तेरी रुचि बाहर है। अंतरमें रुचि कर, अंतरकी श्रद्धा कर। तू उसमें जाकर देख। तुझे होगा ही, वही तेरा स्वभाव है, दूसरा कोई तेरा स्वभाव ही नहीं है।
मुमुक्षुः- कोई ऐसा कहता है कि ॐ कार भजनेसे निर्विकल्प दशा आ जाती है?