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हैं, उसे भी स्वयं स्थिर करके स्वरूप सन्मुख जो उपयोगको स्थिर करता है, स्वरूपमें लीन होता है, स्वरूपमें जम जाता है, बाहरमें जिसे कहीं भी चैन नहीं पडती, ज्ञायकमें एकाग्रता, ज्ञाताकी उग्रता और उसीमें स्थिर हो जाय। जो ज्ञायककी डोरको स्वरूपकी ओर, स्वरूप सन्मुख करके ज्ञायकमें स्थिर हो जाता है। बारंबार उपयोगकी डोर, ज्ञायककी डोर स्वरूपमें लीन करता है। वह विकल्पातीत होनेका उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है।
बारंबार स्वरूपमें स्थिर हो जाय तो उसके विकल्प छूटे और ज्ञायकदेव उसे प्रगट हो। उस ज्ञायकदेवमें ही सब भरा है। बाहर कहीं नहीं है। आनन्द उसमें, अनन्त गुण उसमें, सब (उसीमें है)। जगतसे भिन्न ऐसा ज्ञायकदेव, जो भवका अभाव हो, अंतरमेंसे अनन्त सुख प्रगट हो, जो अपना स्वभाव है वही सुखरूप है। शास्त्रमें आता है कि उतना ही सत्य परमार्थ है कि जितना यह ज्ञान है। जितना यह ज्ञान है उतना ही तू है। वही सत्य परमार्थ है, उसीमें तू संतुष्ट हो, उसीमें तू रुचि कर। ज्ञानमें सब भरा है। अनन्त महिमावंत ज्ञायक स्वभाव, महिमासे भरा, जगतसे भिन्न ऐसा अनुपम तत्त्व है। ज्ञानस्वभावमें ऐसा निश्चय करके उसमें संतुष्ट हो।
उतना ही सत्य कल्याण है कि जितना यह ज्ञान है। अन्यकी महिमा छोडकर ज्ञायकमें लीन हो। उतना ही सत्य परमार्थ, उतना ही कल्याण (है)। उसीमें तू संतुष्ट हो। तेरे अंतरमें उपयोगको ऐसा लीन कर, ऐसा लीन कर कि जिसे बाहर जाना रुचता नहीं। ऐसी लीनता कर। वही विकल्प छूटनेका उपाय है। ऐसा करते-करते अंतरमें ऐसी कोई लगनी लगनेसे, अंतरमें ऐसी विश्रांतिकी परिणति होनेसे ज्ञायककी डोर स्वरूप सन्मुख आनेसे ऐसी विश्रांति और ऐसी शांति उसे प्रगट होती है कि विकल्प छूट जाय और ज्ञायकका कोई अनुपम अनुभव, अनुपम आनन्द, अनुपम स्वाद (आता है)।
ज्ञायकदेव जगतसे भिन्न, ऐसा न्यारा वह ज्ञायकदेव उसे इस प्रकार प्रगट होता है। गुरुदेवने वह मार्ग ऐसा स्पष्ट करके समझाया है, कहीं शंका रहे ऐसा नहीं है। पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना है। गुरुदेवने उसे चारों ओरसे समझाया है। गुरुदेवका परम-परम उपकार है और वही जीवनमें करने जैसा है।
श्रुतज्ञानसे निश्चय करके मति-श्रुतका उपयोग जो बाहर जाता है, उसे अंतरमें लाकर आत्माकी प्रसिद्धि हो, ऐसा पुरुषार्थ कर। तो ज्ञानस्वरूप ज्ञानात्मा, परमात्मा तुझे प्रत्यक्ष अनुभवमें आयेगा और वह तुझे दिखेगा। ऐसा जो आत्मा अलौकिक है, परन्तु उसकी भेदज्ञानकी धाराकी उग्रता कर। द्रव्य पर दृष्टि कर, उसका ज्ञान कर और उस ओर बारंबार स्थिर होनेका प्रयत्न कर तो तुझे वह हुए बिना रहेगा नहीं।
शास्त्रमें आता है कि एक बार तू (शरीरका) पडोसी बनकर देख, तो तुझे अंतरमें